स्वामी श्रद्धानन्द जी एक विराट व्यक्तित्व
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| अमर हुतात्मा स्वामी श्रद्धानन्द जी |
स्वामी श्रद्धानन्द जी एक विराट व्यक्तित्व
जिन्दगी ऐसी बना कि जिन्दा रहे दिलशाद तू।
तू न हो दुनिया में तो दुनिया को आये याद तू।।
अमर हुतात्मा स्वामी श्रद्धानन्द के नाम से कौन सुपरिचित नहीं होगा। कल्याण मार्ग के पथिक मुन्शीराम से महात्मा मुंशीराम व महात्मा मुंशीराम से स्वामी श्रद्धानन्द बने इस महापुरुष का मर्मस्पर्शी जीवन जानकर पाषाण-हृदय मानव भी अश्रु की धारा से नहा उठे। कौन जान सकता है कि ऐसा व्यक्ति जिसके जीवन में घोर तमस का डेरा हो और वह अपने जीवन को ज्ञान के प्रकाश की आभा से आप्लावित कर ज्ञानालोक से सब जगत् को प्रकाशित करे।
स्वामी जी का जन्म पंचनद प्रान्त के जालन्धन जनपतद के अन्तर्गत तलवन नामक ग्राम में पिता नानकचन्द व माता .................... के यहाँ 1856 में जन्म हुआ। यह विप्लव का काल कहा जा सकता है। बाल्यकाल से ही सबसे छोटे होने के कारण सबसे ज्यादा दुलार व प्यार ने आपको स्वतन्त्रता प्रदान की और वह स्वतन्त्रता ही आपके जीवन को अवनत करने का कारण सिद्ध हुई। आपको नास्तिकता के विचारों ने उस समय आ घेरा जब आपने पूजार्चना के लिए पहले रीवा की महारानी को मन्दिर में प्रवेश दिये जाते देखा। इस घटना से भक्तिपूर्ण हृदय को आघात हुआ भगवान् के दरबार में भेदभाव देखकर भक्त मुन्शीराम नास्तिक बनकर लौटे। इसके बाद मांस, शराब के दोष आपमें आ गये व साथियों के उकसाने पर वेश्यालय में भी गए। इन सबके चलते कॉलेज की पढ़ाई में अनुत्तीर्ण हो गये।
पिताजी के तबादले के बाद काशी से बरेली आ गये। 1879 में महर्षि दयानन्द बरेली आये। उनकी सभा का प्रबन्ध भार इनके पिताजी पर ही था। पहले दिन के व्याख्यान से प्रभावित हो पिता ने नास्तिक पुत्र के सुधार की आशा से पुत्र को स्वामी दयानन्द जी के प्रवचन सुनने के लिए प्रेरित किया। संस्कृत का पंडित है ये जानकर कोई रुचि न होने पर भी पिताजी की आज्ञा शिरोधार्य कर आप वहाँ गये। वहाँ जाने पर ‘‘उस आदित्य मूर्ति को देखकर कुछ श्रद्धा उत्पन्न हुई। परन्तु जब पादरी टी.जे. स्काट और अन्य यूरोपियनों को उत्सुकता से बैठे देखा, तो श्रद्धा और भी बढ़ी। अभी भाषण 10 मिनट का भी नहीं सुना था कि मन में विचार किया। यह विचित्र व्यक्ति है कि केवल संस्कृतज्ञ होते हुए ऐसी युक्ति-युक्त बातें करता है कि विद्वान् भी दंग रह जायें। ........... नास्तिक रहते हुए भी आत्मिक आह्लाद में निमग्न कर देना ऋषि आत्मा का ही काम था।
उपदेश सुनकर आत्मिक शान्ति तो अनुभव हुई। परन्तु फिर भी उन्होंने महर्षि से शंका-समाधान किया और बोले ‘‘भगवन् ! मैं बुद्धि से तो आपकी सब बातें मानता हूँ, परन्तु मेरी आत्मा में विश्वास नहीं हुआ कि ईश्वर है।’’ महर्षि ने मुस्कराते हुए कहा ‘‘वत्स ! यह बुद्धि का विषय नहीं है। केवल तर्क से ही आत्मज्ञान नहीं होता। यह तो प्रभु-कृपा से ही होता है। प्रश्न करो, मैं उत्तर देता हूँ।’’ इस सत्संग का प्रभाव मुन्शीराम पर इतना गहरा हुआ कि स्वामी दयानन्द के प्रवचन में सबसे पहले आने और सबसे अन्त में जाने वाला मुन्शीराम ही था। इससे नास्तिकता की रस्सी ढ़ीली हुई। इसका प्रभाव ये रहा कि आपने वकालत करते हुए कभी झूठ का आश्रय नहीं लिया।
कालक्रम से कुछ घटनायें ऐसी घटित हुई की जिसके कारण से आपने सत्यार्थ प्रकाश को पढ़ने का निश्चय किया। सत्यार्थ प्रकाश को प्राप्त करने के लिए इतनी लगन लगी की उसे प्राप्त करने के लिए बच्छोवाली आर्यसमाज पहुँचे। चपरासी ने पुस्तकाध्यक्ष केशवराम के घर का पता बताया। दो घण्टे तक घूमने पर केशव राम जी का घर मुन्शीराम जी ने ढूंढ निकाला। वे घर पर नहीं थे। बडे़ तार घर गये। आप वहीं पहुँच गये वहाँ से वापस आया जान आप पुनः उनके घर पर आये अब वे वहाँ से पुनः कार्यालय जा चुके थे डेढ दो घण्टे तक मुन्शाीराम जी वहीं घूमते रहे। अन्त में आपका प्रयास सफल हुआ आपने सत्यार्थ प्रकाश लिया व घर आकर भूमिका व प्रथम समुल्लास पढकर ही सोये।
सत्यार्थ प्रकाश ने संशयों को दूर कर दिया व आपने आर्यसमाज की सदस्यता ग्रहण की। आपने मांस भक्षण व शराब का सेवन त्याग दिया। आपने मांस भक्षण त्यागते समय विचार किया कि ‘‘एक आर्य के मत में मांस भक्षण भी महापापों में से एक है।
अब मुन्शीराम जी पूर्ण रूप से महर्षि के प्रति समर्पित होकर आर्यसमाज के काम में जुट गये। तन्मय होकर महर्षि के ग्रन्थों का स्वाध्याय करते, प्रवचन करते और आवश्यकता पड़ने पर शास्त्रार्थ भी करते। सन् 1888 में धमकियों के बावजूद भी पटियाला रियासत में कई बार धर्म प्रचार के लिए गए। प्रचार की धुन ऐसी लगी की जालन्धर आर्यसमाज के वार्षिकोत्सव से दो मास पूर्व ही प्रतिदिन प्रातःकाल चार बजे ही हाथ में इकतारा लेकर जालन्धर की गलियों में निकल पड़ते और वैराग्य, श्रद्धा, भक्ति और ईश्वरभक्ति के भजन गाना प्रारम्भ कर देते। इन्हें देखकर कभी कोई माता कहती ‘‘बेचारा बड़ा भला फकीर है, केवल भजन गाता है। मांगता कुछ नहीं।’’ फिर भी माताएँ जबरदस्ती उनकी झोली में अनाज पैसा दुअन्नी, चवन्नी आदि डाल देती थी।
मुन्शीराम जी की बड़ी पुत्री वेदकुमारी ईसाइयों के विद्यालय में पढने जाती थी। 19 अक्टूबर 1888 के दिन जब मुन्शीराम जी कचहरी से आए तो वेदकुमारी दौड़ी आई और गीत सुनाने लगी-’’इकबार ईसा-ईसा बोल, तेरा क्या लगेगो मोल। ईसा मेरा राम रसिया, ईसा मेरा कृष्ण कन्हैया।’’ पूछने पर लड़की ने बताया की आर्य जाति की पुत्रियों को अपने शास्त्रों की निन्दा सिखाई जाती है। उसी दिन मुन्शीराम ने निश्चय किया कि अपना कन्या विद्यालय अवश्य होना चाहिए। और जालन्धर में आर्य कन्या विद्यालय की नींव रख दी। फरवरी 1889 ई. में ‘सद्धर्म प्रचारक’ साप्ताहिक पत्र निकालना शुरु किया।
इसी काल में आपके घनिष्ठ मित्र पं. गुरुदत्त विद्यार्थी के चले जाने से आपको आघात लगा। अभी इस आघात से उबर पाते की आपकी धर्मपत्नी साध्वी शिवदेवी वेदकुमारी, हेमन्त कुमारी, हरिश्चन्द्र व इन्द्र को मुन्शीराम की गोद में छोड़कर सदा के लिए सो गई।
वेदकुमारी ने माता का पत्र पुन्शीराम को दिया। उसमें लिखा था-‘‘बाबू जी अब मैं तो चली ! मेरे अपराध क्षमा करना।........मेरा अन्तिम प्रणाम स्वीकार करो।’’ यह पढ़कर मुन्शीराम ने दृढ़ संकल्प लिया और सम्बन्धियों के प्रलोभनों को ठुकरा कर समाज सेवा के लिए तत्पर हो गए।
1892 में पंजाब की समस्त आर्य समाज की प्रतिनिधि सभी के चुनाव में मुन्शीराम जी प्रधान चुने गये। तब से इनका जीवन सार्वजनिक हो गया। निरन्तर 4 वर्ष तक प्रधान रहे। फिर पंडित लेखराम जी प्रधान बने। मतान्ध मुस्लिम के द्वारा पंडित जी की निर्दयता पूर्वक हत्या कर दी गई। महात्मा जी व पंडित जी का भाई जैसा प्यार था। इनके जाने से आपको बहुत आघात लगा।
सत्यार्थ प्रकाश में लिखी पठन-पाठन विधि को साकार रूप देने के लिए मुंशीराम जी ने प्राचीन गुरुकुल प्रणाली शुरु करने के लिए गुरुकुल खोलने का अपना निश्चय आर्य प्रतिनिधि सभा जालन्धर, लाहौर के सामने रखा। तो आवाज आई-‘‘कहाँ से आएगा गुरुकुल के लिए पैसा ?’’ यह सुनकर उत्साह का धनी मुंशीराम बिजली की भाँति खड़ा हुआ और बादल की भांति गरजते हुए बोला ‘‘ जब तक गुरुकुल के लिए तीस हजार रुपये इकट्ठे नहीं कर लूंगा। घर में पैर नहीं रखूंगा।’’ यह प्रतिज्ञा करके अनोखा फकीर घर से निकल पड़ा। देश में अकाल पड़ा हुआ था फिर भी मुन्शीराम ने लखनऊ से पेशावर और मद्रास तक का दौरा करके लोगों को प्रेरित किया और 6 मास में ही 40 हजार रुपया इकट्ठा हो गया। लाहौर में इनका अभिनन्दन हुआ और मुंशीराम महात्मा मुंशीराम बन गये।
जन-मन को पवित्र करनेल वाली गंगा के तट पर हिमालय की गोद में दानवीर मुन्शी अमन सिंह ने अपने गांव काँगड़ी में 700 बीघा जमीन गुरुकुल के लिए दे दी। सन् 1900 ई. में गुरुकुल घास-फूस की झोपड़ियों से आरम्भ हुआ। 2 मार्च 1902 में गुरुकुल की विधिवत् स्थापना हुई।
सर्वप्रथम अपने दोनों पुत्रों हरिश्चन्द्र व इन्द्र को शिष्य बनाया और स्वयं आचार्य बन गये। अपने पुस्तकालय को भी गुरुकुल को भेंट कर दिया। महात्मा मुंशीराम का सानिध्य पाकर ब्रह्मचारी माता-पिता को भूल जाते थे। इसीलिए छात्र उनको पत्र लिखते समय ‘आदरणीय पिताजी’ और समाप्ति में ‘आपका पुत्र’ लिखते थे। वे हर एक ब्र. का नाम जानते थे चाहे वे संख्या में 400 या 600 ही क्यों न हों। व्यायाम, हाथ से काम, निडर बनाने के लिए जंगलों में घुमाना, खेल, संध्या, सभी विषयों का ज्ञान कराना ये सब विद्यार्थियों की दिनचर्या के अंग थे।
हम मस्तों की है क्या हस्ती, हम आज यहाँ कल वहाँ चले।
मस्ती का आलम साथ चला, हम धूल उड़ाते जहाँ चले।।
गुरुकुल ने अच्छी ख्याति प्राप्त कर ली। विरोधियों ने प्रचार किया कि गुरुकुल में बम बनते हैं। अंग्रेजी सरकार आतंकित हो गई। इसकी गूंज इग्लैण्ड तक भी होने लगी। ब्रिटिश सरकार ने अपने अनेक अधिकारी गुरुकुल में भेजे। परन्तु फिर भी सन्देह बना रहा। गुरुकुल में ब्रह्मचर्य, श्रद्धा, विश्वास, स्वाभिमान, नैतिकता तथा देश-प्रेम कूट-कूट कर भरा जाता था। अन्ध-विश्वास, जात-पात तथा अनेक सामाजिक कुरीतियों को हटाने में गुरुकुल न अहम् भूमिका अदा की। गुरुकुल में बड़े-बडे़ अंग्रेज अधिकारी महात्मा जी के गुरुकुल को देखने आया करते थे।
12 अप्रैल 1917 के दिन प्रातःकाल गंगा पर संन्यास ग्रहण कर महात्मा मुंशीराम स्वामी श्रद्धानन्द बने। उस समय हजारों की भीड़ थी। अनेक संन्यासी, पण्डित तथा पदाधिकारी वहाँ उपस्थित थे। महात्मा जी ने खड़े होकर घोषणा की- ‘‘मैं सदा सब निश्चय परमात्मा की प्रेरणा से श्रद्धापूर्वक ही करता रहा हूँ। मैंने संन्यास भी श्रद्धा की भावना से प्रेरित होकर ही लिया है। इसलिए मैंने ‘श्रद्धानन्द’ नाम धारण करके संन्यास में प्रवेश किया है। आप सब प्रभु से प्रार्थना करें कि वह मुझे अपने इस नेय व्रत को पूर्णरूप से निभाने की शक्ति दे।’’
जिस समय स्वामी श्रद्धानन्द ‘महात्मा मुशीराम’ ही थे। कुम्भ के पर्व पर आर्य समाज के प्रचार हेतु हरिद्वार में कैम्प लगाए गए थे। महात्मा गांधी अपने विद्यार्थियों के साथ वहाँ पधारे। यहाँ उनका स्वागत किया गया। 8 अप्रैल 1915 के दिन यह समारोह सम्पन्न हुआ। एक भावपूर्ण सुन्दर व आकर्षक अभिनन्दन पत्र गांधी जी को दिया। इसी में स्वामी श्रद्धानन्द ने पहली बार उन्हें ‘महात्मा’ कहा था। बाद में वह महात्मा गांधी बने।
सन्यास के बाद अपना सर्वस्व गुरुकुल को प्रदान कर आप सामाजिक कार्यों की ओर मुख कर लिया। 30 मार्च 1919 ई. के दिल रौलट एक्ट के विरोध में सत्याग्रह शुरु हुए। दिल्ली में इस सत्याग्रही सेना के प्रथम सैनिक और मार्गदर्शक स्वामी श्रद्धानन्द ही थे। सब यातायात बन्द हो गये। स्वयंसेवक पुलिस द्वारा पकड़ लिए गए। भीड़ ने साथियों की रिहाई के लिए प्रार्थना की तो पुलिस ने गोलियां चला दी। सांयकाल के समय बीस पच्चीस हजार की अपार भीड़ एक कतार में ’भारत माता की जय’ के नारे लगाती हुई घंटाघर की और स्वामी जी के नेतृत्व में चल पड़ी। अचानक कम्पनी बाग के गोरखा फौज के किसी सैनिक ने गोली चला दी जनता क्रोधित हो गई। लोगों को वहीं खडे़ रहने का आदेश देकर स्वामी जी आगे जा खडे़ हुए और धीर गम्भीर वाणी में पूछा- ‘‘तुमने गोली क्यों चलाई ?’’
सैनिकों ने बन्दुकों की संगीने आगे बढ़ाते हुए कहा- ‘हट जाओ नहीं तो हम तुम्हें छेद देंगे।’’ स्वामी जी एक कदम और आगे बढ़ गए। अब संगीन की नोक स्वामी जी की छाती को छू रही थी। स्वामी जी शेर की भांति गरजते हुए बोले- ‘‘मेरी छाती खुली है, हिम्मत है तो चलाओ गोली।’’ अंग्रेज अधिकारी के आदेश से सैनिकों ने अपनी संगीने झुका ली। जलूस फिर चल पड़ा।
इस घटना के बाद सब और उत्साह का वातावरण बना। 4 अप्रैल को दोपहर बाद मौलाना अब्दुला चूड़ी वाले ने ऊँची आवाज में स्वामी श्रद्धानन्द की तकरीर (भाषण) होनी चाहिए। कुछ नौजवान स्वामी जी को उनके नया बाजार स्थित मकान से ले आए। स्वामी जी मस्ज़िद की वेदी पर खडे़ हुए। उन्होंने ऋग्वेद के मन्त्र ‘त्वं हि नः पिता..... से अपना भाषण प्रारम्भ किया। भारत ही नहीं इस्लाम के इतिहास में यह प्रथम घटना थी कि किसी गैर मुस्लिम ने मस्जिद के मिम्बर से भाषण किया हो।
इस प्रकार स्वामी जी ने 1921 के अन्त तक दिल्ली में आसन जमाया। उसी समय काँग्रेस का अधिवेशन अहमदाबाद में हुआ। इसकी अध्यक्षता स्वामी जी ने की। पंजाब सरकार स्वामी जी को गिरफ्तार करना चाहती थी। अमृतसर में अकालियों ने गुरु का बाग में सरकार से मोर्चा ले रखा था। स्वामी जी अमृतसर पहुंच गए। स्वर्ण मन्दिर में पहुंचकर ‘अकाल तख्त’ पर एक ओजस्वी भाषण दे डाला। ‘गुरु का बाग’ में पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर 1 वर्ष 4 मास की जेल की सजा दे दी। बाद में 15 दिन में ही रिहा कर दिया गया। अमृतसर में स्थान-स्थान पर स्वामी जी का अभिनन्दन हुआ।
बाद में कांग्रेस से मतभेद होने के कारण स्वामी जी ने उसे छोड़ दिया। हिन्दू-संगठन तथा हिन्दू महासभा में काम करने लगे। स्वामी श्रद्धानन्द जी ने शुद्धि कार्य प्रारम्भ किया। जब मौलाना मौहम्मद ने भारत के अछूतों की हिन्दू-मुसलमानों में बराबर बाँटने का प्रस्ताव रखा तो स्वामी जी अपने भाईयों को बचाने के लिए तैयार हुए। मलकाना राजपूतों को स्वामी जी ने उनकी इच्छा से आर्य समाज में मिला लिया। फिर लगभग 2000 राजपूतों को आर्यसमाज में मिलाया। इसके बाद शुद्धि सभाएं शुरु हो गई। गाँव-गाँव और शहर-शहर में अछूत समझे जाने वाले लोगों को आर्यसमाज में मिलाया। जगह-जगह प्रीति भोज किए गए। इससे मुस्लिम नेता नाराज हो गए। स्वामी जी के पास रोजाना धमकी भरे पत्र आने लगे।
इस शुद्धि आन्दोलन का महात्मा गाँधी ने विरोध किया। शुद्धि के विरोध में महात्मा गाँधी ने उपवास रखने शुरू कर दिये। उन्होंने ‘यंग इण्डिया’ में लेख लिखकर हिन्दू-मुस्लिम विरोध का कारण स्वामी श्रद्धानन्द को ठहराया। कुरान और इस्लाम की खूब प्रशंसा की और सत्यार्थ प्रकाश और उसके मानने वालों के लिए तिरस्कार सूचक शब्दों का प्रयोग किया। इससे मुसलमान पूर्ण रूप से भड़क गये और स्वामी जी की हत्या का षड्यन्त्र रचकर 23 दिसम्बर, 1926 को मतान्ध अब्दुल रशीद ने स्वामी जी की गोली मारकर हत्या कर दी। सेवक धर्मसिंह मिर्जापुर कुरुक्षेत्र ने पापी को पकड़ना चाहा तो उन्हें भी गोली का शिकार होना पड़ा, सेवक की जांघ में भी गोली लगी। भागते हत्यारे को स्नातक धर्मपाल विद्यालंकार ने दबा लिया व बाद में उसे पुलिस को पकड़ा दिया गया। कल्याण मार्ग का पथिक आर्य पथिक लेखराम के पथ का अनुगामी बना। 25 दिसम्बर शाम के वक्त जमुना के किनारे जनता अपने नेता के भौतिक शरीर को अग्नि की पवित्र ज्वालाओं को भेंट कर खाली हाथ लौट आई।
स्वामी जी के इन अद्भुत कार्यों के कारण आज तक आर्य जनता उनके पावन स्मरण से अपने आपको उत्साहित कर आर्य संवर्द्धन के कार्य में संलग्न है।
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