फ़ॉलोअर

बुधवार, 17 फ़रवरी 2016

हाय! दिनकर जी क्या लिख गये!

प्रिय पाठकवृन्द्! अंग्रेजों ने भारत में अपने साम्राज्य को सुदृढ़ बनाए रखने के लिए हिन्दू-मुसलमान में तो फूट   डाली ही, हिन्दू समाज को भी आर्य द्रविड़ में बाँटा और आर्यों को विदेशी आक्रमणकारी व द्रविड़ों को भारत के आदि (मूल) वासी प्रचारित किया। उस षड्यंत्रा का शिकार हुए भारतीय लेखक अंग्रेजों के चले जाने के बाद भी यही लिख रहे हैं और बच्चे यही पढ़ रहे हैं कि यह देश (भारत) उनकी या उनके पूर्वजों की मूल (जन्म) भूमि नहीं है अर्थात् भारत एक सराय है। इसकी न तो अपनी कोई संस्कृति है, न सभ्यता है, और न इतिहास है। समय-समय पर आक्रमणकारी इसे लूटते रहे और अपनी संस्कृति व सभ्यता इस पर थोपते रहे। इसे जैसे अंग्रेजों न लूटा, मुसलमानों नेलूटा, उसी तरह आर्यों ने भी आक्रमणकारी के रूप में आकर इसे लूटा था। सोचिये, क्या हम आर्य (आज के हिन्दू,  सिक्ख, बौद्ध, जैन आदि) लुटेरों के वंशज हैं? यदि आर्य विदेशी थे, तो उन्होंने अपने तथाकथित मूल देश को छोड़कर यह क्यों कहा?
गायन्ति देवा: किल गीतकानि, धन्यास्तु ते भारत भूमि भागे।
स्वर्गापवर्गास्पदमार्ग भूते, भवन्ति भूयः पुरुषाः सुरत्वात्।।
(देवता भी यही गान करते हैं कि जिन्होंने स्वर्ग और अपवर्ग के मार्गभूत भारत में जन्म लिया है, वे पुरुष हम देवताओं से भी अधिक धन्य हैं।)

यह कैसी विडम्बना है कि हमें हमारे ही देश में यह पढ़ाया जाए कि वास्कोडिगामा ने भारत की खोज की थी। यह बात पुर्तगाल वाले कहें तो कहें पर हमें तो यही कहना चाहिए कि 1498 ई0 में पुर्तगाल का कोई व्यक्ति प्रथम बार भारत आया था। भारत तो पहले ही संसार में प्रसिद्ध था। भारत का विदेशों से व्यापार होता था, भारत के धर्मप्रचारक पूरे संसार में घूमते थे। जनश्रुति तो यह भी है कि ईसामसीह ने कई वर्ष भारत में शिक्षा प्राप्त की थी। फिर भारत को वास्कोडिगामा क्या खोजता? पर हमें इतने से ही शान्ति नहीं हुई, अपितु इस देश के वासी होकर भी हमने (पं0 जवाहर लाल नेहरू ने) ”डिस्कवरी आॅफ इण्डिया“ (भारत की खोज) पुस्तक ही लिख दी। (कई वर्ष से यह पुस्तक हरियाणा विद्यालय शिक्षा बोर्ड द्वारा आठवीं कक्षा में हिन्दी विषय में पढ़ाई जा रही है) देश का एक कथित महान नेता ऐसा लिख रहा है, यह मानकर उनकी बातों को देशवासियों ने सम्मान दिया और हम अपनों के धोखे में आकर अपने ही देश में विदेशी बन गये। देश के बहुसंख्यक निवासियों के पूर्वजों को बार-बार विदेशी लिखना और आक्रमणकारी तुर्क, मंगोल, मुगल आदि  को भारतीय लिखना भारत की खोज है या आक्रमणकारियों का यशोगान? क्या हमें नहीं पता कि हमें महान किसे कहना चाहिए- हमारे पूर्वजों की स्वतंत्राता, सम्पदा व धर्म को लूटने वाले सिकन्दर, अकबर आदि को या उनसे टकराने वाले पारस, प्रताप आदि को? बाबर बहादुर हो सकता है, काबुल के लिए। हमारे लिएतो क्रूर (पराजित हिन्दुओं के सिर काटकर मीनार बनवाने वाला) आक्रमणकारी ही था। फिर हम विदेशियों की भाषा

क्यों बोलें?

एक बार नेता जी सुभाष ने कहा था- ”मैं भारतीय हूँ और बिना किसी अतिरिक्त प्रयास किए ही भारत को भलीभांति जानता हूँ इसलिए मुझे ‘डिस्कवरी आॅफ इण्डिया’ या ‘हिन्दुस्तान की कहानी’ जैसी पुस्तक लिखने की आवश्यकता नहीं है।“ अर्थात् नेहरू जी ने शिक्षा-दीक्षा के स्तर पर अंग्रेज, सांस्कृतिक स्तर पर मुसलमान व सिर्फ जन्म से हिन्दू होकर भारत को खाजने की अपेक्षा सब प्रकार से भारतीय होकर खोजा होता, तो अधिक उपयुक्त होता। अनेकता में एकता का नारा लगाने वाले झूठ बोलते हैं। एकता तो भाषा, भाव व विचारों की समानता में ही हो सकती है।

यह ठीक है कि जो जहाँ पैदा होता है, मरने के बाद उसी मिट्टी में मिलना चाहता है। कई वर्ष (दो बार - 1923 व 1940 ई0) कांग्रेस के अध्यक्ष रहे और स्वतंत्राता के बाद भारत के शिक्षामंत्राी बने मौलाना अबुल कलाम आजाद ने मरते समय यदि एसी ही इच्छा (मेरी मिट्टी मक्का में सुपुर्दे खाक कर दी जाए) व्यक्त की हो, तो कोई अश्चर्य की बात नहीं। फिर भी वे ‘भारत की खोज’ के लेखक की दृष्टि में आदरणीय राष्ट्रवादी हैं, तो वीर सावरकर, सुभाष, भगतसिंह, चन्द्रशेखर आजाद आदि की उपेक्षा क्यों? बाबर को भी उसकी इच्छा के अनुसार काबुल में दफनाया गया था, फिर भी लेखक ने उसकी प्रशंसा के पुल बाँधे हैं, पर राणा सांगा का नाम भी नहीं लिखा। व्यक्तिगत पसन्द के आधार पर इतिहास नहीं लिखा जाता। जब इतिहास से स्वातंत्रयवीरों के बलिदानी पृष्ठ यूं गायब होते रहेंगे, तो पीढि़यों को राष्ट्र के लिए बलिदान की प्रेरणा कहाँ से मिलेगी? (इसकी समीक्षा शान्ति धर्मी जीन्द ,मो0-09416253826) ने पुस्तक रूप में छापी है) ...... दिलवाने के लिए नेहरू जी ने जनता के आदरणीय कवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ से ‘संस्कृति के चार अध्याय’ नामक ग्रन्थ लिखवाया। दिनकर जी को इसे लिखने में बहुत परिश्रम करना पड़ा, क्योंकि वे तो मूलतः कवि थे और कवित्व ही उनके यश का कारण था। उन्हें राज्यसभा का सदस्य (1952-63 ई0) बनाना और विदेश यात्राओं का अवसर प्रदान करना कदाचित् इस ग्रन्थ को लिखवाने की पृष्ठभूमि तैयार करना था। 1955 ई0 में महाकवि ने यह ग्रन्थ लिखा और बहुत जल्दी (मार्च 1956) यह छप गया। इसकी प्रस्तावना स्वयं नेहरू जी ने लिखी अर्थात् महाकवि को जिस विषय (भारत मूलतः मिश्रित संस्कृति का देश है) पर लिखना था, वह प्रधानमंत्राी जी ने निर्धारित कर दिया।

भारत की जनता अपने प्यारे कवि के बदले दृष्टिकोण से हैरान हो गई और ग्रन्थ की तीखी आलोचना हुई। तृतीय संस्करण (सितम्बर 1962) की भूमिका में दिनकर जी ने लिखा है- ”मेरी स्थापनाओं से सनातनी भी दुःखी हैं और आर्यसमाजी तथा ब्राह्मसमाजी भी। उग्र हिन्दुत्व के समर्थक तो इस ग्रन्थ से काफी नाराज हैं।“ फिर भी इस ग्रन्थ के लिए नेहरू जी ने 6 नवम्बर 1956 को साहित्य अकादमी पुरस्कार से दिनकर जी को स्वयं सम्मानित किया और अगले महीने ग्रन्थ का पुनः प्रकाश न हुआ। साथ ही महाकवि को पुनः विदेश यात्रा का भी अवसर मिला।

यद्यपि तृतीय संस्करण में बहुत कुछ बदला गया था, तथापि 2008 के संस्करण को भी पूर्णतः निर्दोष नहीं कहा जा सकता। ‘संस्कृति के चार अध्याय’ ग्रन्थ के कुछ आपत्तिजनक स्थल देखकर पाठक स्वयं अनुभव करेंगे कि नेहरू जी द्वारा प्रदत्त पद व सम्मान के दबाव में आकर दिनकर जी ने निर्दयतापूर्वक सत्य की हत्या की है। देखियेः
1. भारतीय संस्कृति सामासिक है- इसका निर्माण भारत की मूल जाति नीग्रो, आग्नेय, द्रविड़ आदि के साथ आर्यों (विदेशियों) के मिलन से हुआ। (पृ0 4 व अनेक बार)
2.  वैदिक ऋषि मांसाहारी थे। (पृ0 33)
3.  अथर्ववेद में मारण, मोहन, वशीकरण और उच्चाटन आदि विद्याओं का ही वर्णन है। (पृ0 86)
4.  उपनिषदों में बहुत सी बातें परस्पर विरोधी हैं। (पृ0 95)
5. आर्यस्थान, आर्यावत्र्त आदि नाम गलत हैं।इस देश का सही नाम भारतवर्ष, हिन्दुस्तान या इंडिया ही हो सकता है। इसी प्रकार हिन्दू नाम बहुत व्यापक है और आर्य नाम संकीर्ण है। (पृ0 78)
6. महमूद (गजनवी) की चढ़ाई के समय हिन्दू धूलकणों के समान उड़ गये और जीवित लोगों के मुख में उनकी कहानी मात्रा शेष रही। (पृ0 268)
7.  सिक्ख धर्म हिन्दुत्व और इस्लाम के मिलने से जनमा था। (पृ0 342, 466, 477)
8.  अकबर सचमुच महान था। भारत की एकता की समस्या को उसने ठीक पहचाना था। (पृ0 327)
9.   छह शास्त्रों और अठारह पुराणों को उन्होंने (स्वामी दयानन्द ने) एक ही झटके में साफ कर दिया। (पृ0 476)
10. स्वामी जी ने संहिताओं को तो प्रमाण माना, किन्तु उपनिषदों पर वही श्रद्धा नहीं दिखायी।.... युग-युग से पूजित गीता को उन्होंने कोई महत्व नहीं दिया और राम-कृष्ण आदि को तो परम पुरुष माना ही नहीं। (पृ0 478)
11. (वेद में त्रिकाल ज्ञान मानकर) स्वामी जी ने एक नूतन अन्धविश्वास को जन्म दिया। (पृ0 478)
12. केवल वेद को प्रमाण मानने का कुफल यह हुआ कि इतिहासवालों में भी यह धारणा चल पड़ी कि भारत की सारी संस्कृति और सभ्यता वेदवालों अर्थात् आर्यों की रचना है।... स्वामी जी ने आर्यावत्र्त की जो सीमा बाँधी है, वह विन्ध्याचल पर समाप्त हो जाती है। आर्य-आर्य कहने और वेद-वेद चिल्लाने तथा... आज दक्षिण भारत में आर्य-विरोधी आन्दोलन उठ खड़ा हुआ है। (पृ0 479)
13. हमारा धर्म पण्डितों (शास्त्रों के विद्वानों) की नहीं, सन्तों और द्रष्टाओं की रचना है।... रामकृष्ण (परमहंस) के आगमन से धर्म की यही अनुभूति प्रत्यक्ष हुई।... उनके समकालीन अन्य सुधारक और सन्त पृथ्वी के वासी थे एवं पृथ्वी से ही वे ऊपर की ओर उठे थे। किन्तु रामकृष्ण (1836-86 ई0) देवी अवतार की भाँति आये। पृथ्वी पर वे भटकती हुई स्वर्ग की किरण के समान आये। (पृ0 490-91)
14. हिन्दू जाति का धर्म है कि वह जब तक जीवित रहे, विवेकानन्द की याद उसी श्रद्धा से करती जाए; जिस श्रद्धा से वह व्यास और वाल्मीकि की याद करती है। (पृ0 504)  
15. सर सैयद (अहमद खाँ) में साम्प्रदायिकता थी या नहीं, यह सन्दिग्ध विषय है। वैसे, वे उन्नीसवीं सदी के उन भारतीय महापुरुषों में थे, जो इन क्षुद्र भावनाओं से बहुत ऊँचे थे। (पृ0 583)
16. पाकिस्तान के प्रबल समर्थक सर मुहम्मद इकबाल की विचारधारा पर 21 पृष्ठ लिखे हैं, जबकि किसी राष्ट्रवादी कवि या क्रांतिकारी वीर की विचारधारा के दर्शन भी नहीं। गाँधी जी की अहिंसा और राम नाम का विचित्रा गुणगान करके ही सब कुछ समाप्त कर दिया।
17. अकबर ने मुस्लिम-आतंक से पीडि़त हिन्दुओं का पक्ष जिस वीरता से लिया था, जवाहरलाल जी उसी वीरता के साथ मुसलमानों का पक्ष ले रहे हैं।(पृ0 628)

प्रिय पाठकवृन्द! यदि आज भारत का कोई नेता (रघुवंश प्रसाद-राजद, बिहार) भारत के प्राचीन ऋषियों को गोमांसभक्षी बताए और डाॅ0 अम्बेडकर का समर्थक बनकर कोई सांसद (मल्लिकार्जुन खड़गे-कांग्रेस) आर्यों को विदेशी बताकर भारत के गृहमंत्राी श्री राजनाथ सिंह का विरोध करे, फिर भी हिन्दुओं में इसके विरुद्ध कोई प्रतिक्रिया न हो, तो लगता है कि षड्यंत्राकारियों द्वारा प्रयुक्त विष अपना प्रभाव दिखा गया है। यह अलग बात है कि डाॅ0 अम्बेडकर के नाम का लबादा ओढ़ने वाले सांसद को यह भी नहीं पता कि डाॅ0 साहब आर्यों को भारत के मूल निवासी मानते थे, विदेशी नहीं। और दिनकर जी व नेहरू जी ने जिन स्वामी विवेकानन्द की दैवीशक्ति का गुणगान किया है, वे तो आर्यों को विदेशी कहने वालों को अपने सिद्धान्तसहित डूब मरने को कहते थे। फिर भी उल्टा -सीधा लिखकर कोई ‘भारत रत्न’ बन गया और कोई ‘पद्म भूषण’ ले गया। ऐसी अन्धेरगर्दी में सत्य की खोज करना भोले विद्यार्थियों के वश की बात नहीं है।

जब गाँधी जी के पटशिष्य आचार्य विनोबा भावे किसी नाटक को प्रमाण मानकर अपनी पुस्तक ‘गीता प्रवचन’ में ऋषि वशिष्ठ को गोमांसभक्षी लिखते हों; अहिंसा के पुजारी गाँधीजी ‘आरोग्य की कुंजी’ पुस्तक में दूध को मांसाहार और अण्डे को शाकाहार मानते हों व सम्पूर्ण हिन्दुत्व के विश्वप्रचारक स्वामी विवेकानन्द मांसाहार न त्यागकर भारत के प्राचीन ब्राह्मणों (ऋषियों) पर मांसाहार का लांछन लगाते हुए कहते हों- ”इसी भारत में कभी ऐसा समय था, जब कोई ब्राह्मण, बिना मांस खाये ब्राह्मण न रह जाता था; तुम वेद पढ़ो, देखोगे, जब संन्यासी या राजा मकान में आता था, तब किस तरह और कैसे बकरों और बैलों के सिर धड़ से जुदा होते थे।“ (स्वामी विवेकानन्द जी से वार्तालाप, (पृ0 48)

तो फिर इतिहास बिगाड़ने का दोष केवल अंग्रेजों को क्यों दिया जाये? क्या उपरोक्त सभी महापुरुष और उन्हें बड़े-बड़े सम्मान से लादने वाले हम सब इसके दोषी नहीं हैं? माना कि अंग्रेजों ने धूर्तता की थी, पर हमने उसे क्यों  ढोया? स्वामी विवेकानन्द प्रो0 मैक्समूलर की खुशामद करके उनसे अपने गुरु रामकृष्ण की जीवनी तो लिखवा गये,  पर कभी आर्यों के विदेशी होने के उनके सिद्धान्त को बदलने की नहीं कही। नेहरू जी अपनी पुस्तकों में विदेशी लेखकों के प्रमाण बिना किसी तर्क-वितर्क के लिखते रहे। दिनकर जी ने कुछ ऊहापोह तो की, पर स्थापना उन्हीं के     विचारों की रखी। जैसे- आर्यों के विषय में कई बार लिखा है- आर्य और द्रविड़, दोनों प्रकार के लोग, इस देश में अनन्त काल से रहते आये हैं और हमारे प्राचीनतम साहित्य में इस बात का कोई प्रमाण नहीं मिलता कि ये दोनों जातियाँ बाहर से आयीं अथवा इन दोनों के बीच कभी लड़ाइयाँ भी हुई थीं। (पृ0 10) इससे इस बात पर भी अच्छा प्रकाश पड़ता है कि द्रविड़ों को आर्यों से भिन्न मानना कितना भ्रामक और मूर्खतापूर्ण है। (पृ0 37)

फिर भी लगभग 20 बार आर्यों को विदेशी लिखा है। आर्य या वेद विषय में किसी संस्कृतग्रन्थ या आर्यसमाज के संस्थापक व वेदों के प्रकाण्ड विद्वान् स्वामी दयानन्द को कहीं प्रमाण नहीं माना। साथ ही स्वामी दयानन्द के विषय में रामकृष्ण परमहंस के विचार लिखे हैं- ”दयानन्द से भंेट करने गया।... वे वैखरी अवस्था में थे। रात-दिन लगातार शास्त्रों की ही चर्चा किया करते थे। अपने व्याकरण-ज्ञान के बल पर उन्होंने अनेक शास्त्रा-वाक्यों के अर्थ में उलट-फेर कर दिया है। ‘मैं ऐसा करूँगा, मैं अपना मत स्थापित करूँगा’ ऐसा कहने में उनका अहंकार दिखायी देता है।“ दिनकर जी ने इस पर कोई टिप्पणी भी नहीं की। इसका अर्थ है कि ये उन्हीं के विचार हैं, जो परमहंस के माध्यम से प्रकट हुए। अन्यथा योगी अरविन्द या रवीन्द्रनाथ टैगोर के विचार भी दिये जा सकते थे, जबकि स्वामी विवेकानन्द के विषय में दिये हैं। योगी अरविन्द ने ऋषि दयानन्द की प्रशस्ति में लिखा है-

”वह दिव्य ज्ञान का सच्चा सैनिक, विश्व को प्रभु की शरण में लाने वाला योद्धा, मनुष्यों और संस्थाओं का शिल्पी तथा प्रकृति द्वारा आत्मा के मार्ग में उपस्थित की जाने वाली बाधाओं का निर्भीक और शक्तिशाली विजेता था।...“ ”वेदों की व्याख्या के विषय में मेरा पूरा विश्वास है कि चाहे इनकी अन्तिम व्याख्या कुछ भी हो, दयानन्द उसके सत्यसूत्रों के प्रथम आविष्कत्र्ता के रूप में स्मरण किये जायेंगे। यह दयानन्द की सत्य का साक्षात्कार करने वाली दृष्टि ही थी, जिसने पुराने अज्ञान तथा लम्बे युग से चली आती नासमझी को बीच से चीरकर सत्य को सीधे देखा और अपनी दृष्टि को वहाँ केन्द्रित किया, जो महत्त्वपूर्ण था।

और रवीन्द्रनाथ टैगोर ने लिखा है- ”मेरा सादर प्रणाम हो, उस महान् गुरु दयानन्द को, जिसकी दृष्टि ने भारत के आत्मिक जीवन के सब अंगों को प्रदीप्त कर दिया। जिस गुरु का उद्देश्य भारतवर्ष को अविद्या, आलस्य और प्राचीन ऐतिहासिक तत्त्व के अज्ञान से मुक्त कर सत्य और पवित्राता की जागृति में लाना था; उसे मेरा बारम्बार प्रणाम है।“

चलो, व्यक्ति की अपनी पसन्द है, दिनकर जी ने नहीं लिखा। पर जब यही पसन्द अपनाते हुए योगी अरविन्द ऋषि दयानन्द के वाक्य ‘वेदों में विज्ञान का भी मूल है’ के समर्थन में कहते हैं कि यह अत्युक्ति नहीं, अल्पोक्ति है, तेा दिनकर जी को परेशानी क्यों हुई? अंग्रेजों की नौकरी करते हुए जनता के देशभक्त कवि ने लोगों को अंग्रेजों के पक्ष में लड़ने का प्रचार किया। नेहरू ने सांसद बनाया, तो कवि ने आर्यों और उनकी संस्कृति के विदेशी होने का प्रचार किया। दिनकर जी के संकीर्ण दृष्टिकोण की पुनरावृत्ति करते हुए 2003 ई0 (भाजपा के शासनकाल) में एन0सी0ई0आर0टी0 द्वारा बारहवीं कक्षा के लिए प्रकाशित इतिहास पुस्तक में रामकृष्ण व स्वामी विवेकानन्द का गुणगान व आर्यसमाज का अवमूल्यन करते हुए नूतन अन्धविश्वास और आर्यावत्र्त की समीक्षा विषय ज्यों का त्यों लिखा तथा यह भी लिखा- ”साथ ही इन (स्वामी दयानन्द) के अनुयाइयों ने सिद्धान्तों के मंडन के स्थान पर दूसरे मतों के खंडन करने की प्रवृत्ति ज्यादा विकसित की।“ (पृ0 121)

प्रबुद्ध पाठकों को कवि रामधारी सिंह दिनकर द्वारा लिखित पुस्तक ‘संस्कृति के चार अध्याय’ का दिग्दर्शन इसलिए करवाया है ताकि भविष्य में इतिहास पर होने वाले अपनों के भी आक्रमण से सावधानी रखी जाए। धर्म के आधार पर देश को बाँटकर भी इसे धर्मनिरपेक्ष (पंथनिरपेक्ष) बनाने वाले नेताओं ने अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों को विशेष नागरिक बनाकर जो अदूरदर्शिता दिखाई थी, उसी को आगे बढ़ाते हुए वर्तमान जहरीली राजनीति ने आज हिन्दू समाज (भटका हुआ आर्य) के अंगों (बौद्ध, जैन, सिक्ख आदि-बुद्ध, महावीर, गुरु तेग बहादुर आदि को हिन्दू आदरणीय मानता है) को भी अलग-अलग कर अल्पसंख्यक घोषित किया जा रहा है। सुना है स्वामी विवेकानन्द (रामकृष्ण परमहंस) के शिष्य भी स्वयं को अल्पसंख्यक घोषित करवाने के लिए प्रयासरत हैं।

पूरा हिन्दू समाज कहीं तो गुरुओं के खेमों में बँटा है, कहीं जाति के घेरे में घिरा है। वैदिक संस्कृति के चिह्न (गाय, ऋषि, वेद, आर्य, योग आदि) पराए बन गए हैं। अतः इन पर आक्रमण होने से किसी हिन्दू को पीड़ा नहीं होती। अतीत का सत्य तो यही है कि महात्मा बुद्ध के काल तक इस देश में ‘आर्य’ शब्द चलता था। अतः बुद्ध, महावीर आदि के वर्तमान शिष्यों के पूर्वज आर्य थे। इस्लाम के आगमन पर आर्य हिन्दू कहलाने लगे। अतः इस काल में मुस्लिम बने लोगों के पूर्वज हिन्दू या आर्य कहे जा सकते हंै। पूजा पद्धति बदलने से पूर्वज तो नहीं बदलते। भारत का कोई भी सम्प्रदाय कुछ सुविधाओं के लाभ हेतु अपने ही देश में अल्पसंख्यक (असहाय) न बने। ईश्वर हम पर कृपा करे कि हम राष्ट्रहित में बाधा डालने वाली मत, मजहब , जाति की दीवारों को तोड़ सकें। इसी उद्देश्य से यह समीक्षा लिखी जा रही है। किसी की विद्वत्ता को चुनौती देना हमारा उद्देश्य नहीं है।

नहीं किसी से वैर, किसी का पक्ष नहीं है।
मिट जाए अन्याय ,धर्म का लक्ष्य यही है।।

(राजेशार्य आट्टा,1166,कच्चा किला,साढौरा,जिला-यमुनानगर-133204)

बुधवार, 7 मार्च 2012

स्वामी श्रद्धानन्द जी एक विराट व्यक्तित्व


स्वामी श्रद्धानन्द जी एक विराट व्यक्तित्व


अमर हुतात्मा स्वामी श्रद्धानन्द जी 
स्वामी श्रद्धानन्द जी एक विराट व्यक्तित्व

जिन्दगी ऐसी बना कि जिन्दा रहे दिलशाद तू।
तू न हो  दुनिया में तो दुनिया को आये याद तू।।

अमर हुतात्मा स्वामी श्रद्धानन्द के नाम से कौन सुपरिचित नहीं होगा। कल्याण मार्ग के पथिक मुन्शीराम से महात्मा मुंशीराम व महात्मा मुंशीराम से स्वामी श्रद्धानन्द बने इस महापुरुष का मर्मस्पर्शी जीवन जानकर पाषाण-हृदय मानव भी अश्रु की धारा से नहा उठे। कौन जान सकता है कि ऐसा व्यक्ति जिसके जीवन में घोर तमस का डेरा हो और वह अपने जीवन को ज्ञान के प्रकाश की आभा से आप्लावित कर ज्ञानालोक से सब जगत् को प्रकाशित करे। 
स्वामी जी का जन्म पंचनद प्रान्त के जालन्धन जनपतद के अन्तर्गत तलवन नामक ग्राम में पिता नानकचन्द व माता .................... के यहाँ 1856 में जन्म हुआ। यह विप्लव का काल कहा जा सकता है। बाल्यकाल से ही सबसे छोटे होने के कारण सबसे ज्यादा दुलार व प्यार ने आपको स्वतन्त्रता प्रदान की और वह स्वतन्त्रता ही आपके जीवन को अवनत करने का कारण सिद्ध हुई। आपको नास्तिकता के विचारों ने उस समय आ घेरा जब आपने पूजार्चना के लिए पहले रीवा की महारानी को मन्दिर में प्रवेश दिये जाते देखा। इस घटना से भक्तिपूर्ण हृदय को आघात हुआ भगवान् के दरबार में भेदभाव देखकर भक्त मुन्शीराम नास्तिक बनकर लौटे। इसके बाद मांस, शराब के दोष आपमें आ गये व साथियों के उकसाने पर वेश्यालय में भी गए। इन सबके चलते कॉलेज की पढ़ाई में अनुत्तीर्ण हो गये।
पिताजी के तबादले के बाद काशी से बरेली आ गये। 1879 में महर्षि दयानन्द बरेली आये। उनकी सभा का प्रबन्ध भार इनके पिताजी पर ही था। पहले दिन के व्याख्यान से प्रभावित हो पिता ने नास्तिक पुत्र के सुधार की आशा से पुत्र को स्वामी दयानन्द जी के प्रवचन सुनने के लिए प्रेरित किया। संस्कृत का पंडित है ये जानकर कोई रुचि न होने पर भी पिताजी की आज्ञा शिरोधार्य कर आप वहाँ गये। वहाँ जाने पर ‘‘उस आदित्य मूर्ति को देखकर कुछ श्रद्धा उत्पन्न हुई। परन्तु जब पादरी टी.जे. स्काट और अन्य यूरोपियनों को उत्सुकता से बैठे देखा, तो श्रद्धा और भी बढ़ी। अभी भाषण 10 मिनट का भी नहीं सुना था कि मन में विचार किया। यह विचित्र व्यक्ति है कि केवल संस्कृतज्ञ होते हुए ऐसी युक्ति-युक्त बातें करता है कि विद्वान् भी दंग रह जायें। ........... नास्तिक रहते हुए भी आत्मिक आह्लाद में निमग्न कर देना ऋषि आत्मा का ही काम था।
उपदेश सुनकर आत्मिक शान्ति तो अनुभव हुई। परन्तु फिर भी उन्होंने महर्षि से शंका-समाधान किया और  बोले ‘‘भगवन् ! मैं बुद्धि से तो आपकी सब बातें मानता हूँ, परन्तु मेरी आत्मा में विश्वास नहीं हुआ कि ईश्वर है।’’ महर्षि ने मुस्कराते हुए कहा ‘‘वत्स ! यह बुद्धि का विषय नहीं है। केवल तर्क से ही आत्मज्ञान नहीं होता। यह तो प्रभु-कृपा से ही होता है। प्रश्न करो, मैं उत्तर देता हूँ।’’ इस सत्संग का प्रभाव मुन्शीराम पर इतना गहरा हुआ कि स्वामी दयानन्द के प्रवचन में सबसे पहले आने और सबसे अन्त में जाने वाला मुन्शीराम ही था। इससे नास्तिकता की रस्सी ढ़ीली हुई। इसका प्रभाव ये रहा कि आपने वकालत करते हुए कभी झूठ का आश्रय नहीं लिया।
कालक्रम से कुछ घटनायें ऐसी घटित हुई की जिसके कारण से आपने सत्यार्थ प्रकाश को पढ़ने का निश्चय किया। सत्यार्थ प्रकाश को प्राप्त करने के लिए इतनी लगन लगी की उसे प्राप्त करने के लिए बच्छोवाली आर्यसमाज पहुँचे। चपरासी ने पुस्तकाध्यक्ष केशवराम के घर का पता बताया। दो घण्टे तक घूमने पर केशव राम जी का घर मुन्शीराम जी ने ढूंढ निकाला। वे घर पर नहीं थे। बडे़ तार घर गये। आप वहीं पहुँच गये वहाँ से वापस आया जान आप पुनः उनके घर पर आये अब वे वहाँ से पुनः कार्यालय जा चुके थे डेढ दो घण्टे तक मुन्शाीराम जी वहीं घूमते रहे। अन्त में आपका प्रयास सफल हुआ आपने सत्यार्थ प्रकाश लिया व घर आकर भूमिका व प्रथम समुल्लास पढकर ही सोये।
सत्यार्थ प्रकाश ने संशयों को दूर कर दिया व आपने आर्यसमाज की सदस्यता ग्रहण की। आपने मांस भक्षण व शराब का सेवन त्याग दिया। आपने मांस भक्षण त्यागते समय विचार किया कि ‘‘एक आर्य के मत में मांस भक्षण भी महापापों में से एक है।
अब मुन्शीराम जी पूर्ण रूप से महर्षि के प्रति समर्पित होकर आर्यसमाज के काम में जुट गये। तन्मय होकर महर्षि के ग्रन्थों का स्वाध्याय करते, प्रवचन करते और आवश्यकता पड़ने पर शास्त्रार्थ भी करते। सन् 1888 में धमकियों के बावजूद भी पटियाला रियासत में कई बार धर्म प्रचार के लिए गए। प्रचार की धुन ऐसी लगी की जालन्धर आर्यसमाज के वार्षिकोत्सव से दो मास पूर्व ही प्रतिदिन प्रातःकाल चार बजे ही हाथ में इकतारा लेकर जालन्धर की गलियों में निकल पड़ते और वैराग्य, श्रद्धा, भक्ति और ईश्वरभक्ति के भजन गाना प्रारम्भ कर देते। इन्हें देखकर कभी कोई माता कहती ‘‘बेचारा बड़ा भला फकीर है, केवल भजन गाता है। मांगता कुछ नहीं।’’ फिर भी माताएँ जबरदस्ती उनकी झोली में अनाज पैसा दुअन्नी, चवन्नी आदि डाल देती थी।
मुन्शीराम जी की बड़ी पुत्री वेदकुमारी ईसाइयों के विद्यालय में पढने जाती थी। 19 अक्टूबर 1888 के दिन जब मुन्शीराम जी कचहरी से आए तो वेदकुमारी दौड़ी आई और गीत सुनाने लगी-’’इकबार ईसा-ईसा बोल, तेरा क्या लगेगो मोल। ईसा मेरा राम रसिया, ईसा मेरा कृष्ण कन्हैया।’’ पूछने पर लड़की ने बताया की आर्य जाति की पुत्रियों को अपने शास्त्रों की निन्दा सिखाई जाती है। उसी दिन मुन्शीराम ने निश्चय किया कि अपना कन्या विद्यालय अवश्य होना चाहिए। और जालन्धर में आर्य कन्या विद्यालय की नींव रख दी। फरवरी 1889 ई. में ‘सद्धर्म प्रचारक’ साप्ताहिक पत्र निकालना शुरु किया।
इसी काल में आपके घनिष्ठ मित्र पं. गुरुदत्त विद्यार्थी के चले जाने से आपको आघात लगा। अभी इस आघात से उबर पाते की आपकी धर्मपत्नी साध्वी शिवदेवी वेदकुमारी, हेमन्त कुमारी, हरिश्चन्द्र व इन्द्र को मुन्शीराम की गोद में छोड़कर सदा के लिए सो गई।
वेदकुमारी ने माता का पत्र  पुन्शीराम को दिया। उसमें लिखा था-‘‘बाबू जी अब मैं तो चली ! मेरे अपराध क्षमा करना।........मेरा अन्तिम प्रणाम स्वीकार करो।’’ यह पढ़कर मुन्शीराम ने दृढ़ संकल्प लिया और सम्बन्धियों के प्रलोभनों को ठुकरा कर समाज सेवा के लिए तत्पर हो गए।
1892 में पंजाब की समस्त आर्य समाज की प्रतिनिधि सभी के चुनाव में मुन्शीराम जी प्रधान चुने गये। तब से इनका जीवन सार्वजनिक हो गया। निरन्तर 4 वर्ष तक प्रधान रहे। फिर पंडित लेखराम जी प्रधान बने। मतान्ध मुस्लिम के द्वारा पंडित जी की निर्दयता पूर्वक हत्या कर दी गई। महात्मा जी व पंडित जी का भाई जैसा प्यार था। इनके जाने से आपको बहुत आघात लगा।
सत्यार्थ प्रकाश में लिखी पठन-पाठन विधि को साकार रूप देने के लिए मुंशीराम जी ने प्राचीन गुरुकुल प्रणाली शुरु करने के लिए गुरुकुल खोलने का अपना निश्चय आर्य प्रतिनिधि सभा जालन्धर, लाहौर के सामने रखा। तो आवाज आई-‘‘कहाँ से आएगा गुरुकुल के लिए पैसा ?’’ यह सुनकर उत्साह का धनी मुंशीराम बिजली की भाँति खड़ा हुआ और बादल की भांति गरजते हुए बोला ‘‘ जब तक गुरुकुल के लिए तीस हजार रुपये इकट्ठे नहीं कर लूंगा। घर में पैर नहीं रखूंगा।’’ यह प्रतिज्ञा करके अनोखा फकीर घर से निकल पड़ा। देश में अकाल पड़ा हुआ था फिर भी मुन्शीराम ने लखनऊ से पेशावर और मद्रास तक का दौरा करके लोगों को प्रेरित किया और 6 मास में ही 40 हजार रुपया इकट्ठा हो गया। लाहौर में इनका अभिनन्दन हुआ और मुंशीराम महात्मा मुंशीराम बन गये।
जन-मन को पवित्र करनेल वाली गंगा के तट पर हिमालय की गोद में दानवीर मुन्शी अमन सिंह ने अपने गांव काँगड़ी में 700 बीघा जमीन गुरुकुल के लिए दे दी। सन् 1900 ई. में गुरुकुल घास-फूस की झोपड़ियों से आरम्भ हुआ। 2 मार्च 1902 में गुरुकुल की विधिवत् स्थापना हुई।
सर्वप्रथम अपने दोनों पुत्रों हरिश्चन्द्र व इन्द्र को शिष्य बनाया और स्वयं आचार्य बन गये। अपने पुस्तकालय को भी गुरुकुल को भेंट कर दिया। महात्मा मुंशीराम का सानिध्य पाकर ब्रह्मचारी माता-पिता को भूल जाते थे। इसीलिए छात्र उनको पत्र लिखते समय ‘आदरणीय पिताजी’ और समाप्ति में ‘आपका पुत्र’ लिखते थे। वे हर एक ब्र. का नाम जानते थे चाहे वे संख्या में 400 या 600 ही क्यों न हों। व्यायाम, हाथ से काम, निडर बनाने के लिए जंगलों में घुमाना, खेल, संध्या, सभी विषयों का ज्ञान कराना ये सब विद्यार्थियों की दिनचर्या के अंग थे।
हम मस्तों की है क्या हस्ती, हम आज यहाँ कल वहाँ चले।
मस्ती का आलम साथ चला, हम धूल उड़ाते जहाँ चले।।
गुरुकुल ने अच्छी ख्याति प्राप्त कर ली। विरोधियों ने प्रचार किया कि गुरुकुल में बम बनते हैं। अंग्रेजी सरकार आतंकित हो गई। इसकी गूंज इग्लैण्ड तक भी होने लगी। ब्रिटिश सरकार ने अपने अनेक अधिकारी गुरुकुल में भेजे। परन्तु फिर भी सन्देह बना रहा। गुरुकुल में ब्रह्मचर्य, श्रद्धा, विश्वास, स्वाभिमान, नैतिकता तथा देश-प्रेम कूट-कूट कर भरा जाता था। अन्ध-विश्वास, जात-पात तथा अनेक सामाजिक कुरीतियों को हटाने में गुरुकुल न अहम् भूमिका अदा की। गुरुकुल में बड़े-बडे़ अंग्रेज अधिकारी महात्मा जी के गुरुकुल को देखने आया करते थे।
12 अप्रैल 1917 के दिन प्रातःकाल गंगा पर संन्यास ग्रहण कर महात्मा मुंशीराम स्वामी श्रद्धानन्द बने। उस समय हजारों की भीड़ थी। अनेक संन्यासी, पण्डित तथा पदाधिकारी वहाँ उपस्थित थे। महात्मा जी ने खड़े होकर घोषणा की- ‘‘मैं सदा सब निश्चय परमात्मा की प्रेरणा से श्रद्धापूर्वक ही करता रहा हूँ। मैंने संन्यास भी श्रद्धा की भावना से प्रेरित होकर ही लिया है। इसलिए मैंने ‘श्रद्धानन्द’ नाम धारण करके संन्यास में प्रवेश किया है। आप सब प्रभु से प्रार्थना करें कि वह मुझे अपने इस नेय व्रत को पूर्णरूप से निभाने की शक्ति दे।’’
जिस समय स्वामी श्रद्धानन्द ‘महात्मा मुशीराम’ ही थे। कुम्भ के पर्व पर आर्य समाज के प्रचार हेतु हरिद्वार में कैम्प लगाए गए थे। महात्मा गांधी अपने विद्यार्थियों के साथ वहाँ पधारे। यहाँ उनका स्वागत किया गया। 8 अप्रैल 1915 के दिन यह समारोह सम्पन्न हुआ। एक भावपूर्ण सुन्दर व आकर्षक अभिनन्दन पत्र गांधी जी को दिया। इसी में स्वामी श्रद्धानन्द ने पहली बार उन्हें ‘महात्मा’ कहा था। बाद में वह महात्मा गांधी बने।
सन्यास के बाद अपना सर्वस्व गुरुकुल को प्रदान कर आप सामाजिक कार्यों की ओर मुख कर लिया। 30 मार्च 1919 ई. के दिल रौलट एक्ट के विरोध में सत्याग्रह शुरु हुए। दिल्ली में इस सत्याग्रही सेना के प्रथम सैनिक और मार्गदर्शक स्वामी श्रद्धानन्द ही थे। सब यातायात बन्द हो गये। स्वयंसेवक पुलिस द्वारा पकड़ लिए गए। भीड़ ने साथियों की रिहाई के लिए प्रार्थना की तो पुलिस ने गोलियां चला दी। सांयकाल के समय बीस पच्चीस हजार की अपार भीड़ एक कतार में ’भारत माता की जय’ के नारे लगाती हुई घंटाघर की और स्वामी जी के नेतृत्व में चल पड़ी। अचानक कम्पनी बाग के गोरखा फौज के किसी सैनिक ने गोली चला दी जनता क्रोधित हो गई। लोगों को वहीं खडे़ रहने का आदेश देकर स्वामी जी आगे जा खडे़ हुए और धीर गम्भीर वाणी में पूछा- ‘‘तुमने गोली क्यों चलाई ?’’
सैनिकों ने बन्दुकों की संगीने आगे बढ़ाते हुए कहा- ‘हट जाओ नहीं तो हम तुम्हें छेद देंगे।’’ स्वामी जी एक कदम और आगे बढ़ गए। अब संगीन की नोक स्वामी जी की छाती को छू रही थी। स्वामी जी शेर की भांति गरजते हुए बोले- ‘‘मेरी छाती खुली है, हिम्मत है तो चलाओ गोली।’’ अंग्रेज अधिकारी के आदेश से सैनिकों ने अपनी संगीने झुका ली। जलूस फिर चल पड़ा।
इस घटना के बाद सब और उत्साह का वातावरण बना। 4 अप्रैल को दोपहर बाद मौलाना अब्दुला चूड़ी वाले ने ऊँची आवाज में स्वामी श्रद्धानन्द की तकरीर (भाषण) होनी चाहिए। कुछ नौजवान स्वामी जी को उनके नया बाजार स्थित मकान से ले आए। स्वामी जी मस्ज़िद की वेदी पर खडे़ हुए। उन्होंने ऋग्वेद के मन्त्र ‘त्वं हि नः पिता..... से अपना भाषण प्रारम्भ किया। भारत ही नहीं इस्लाम के इतिहास में यह प्रथम घटना थी कि किसी गैर मुस्लिम ने मस्जिद के मिम्बर से भाषण किया हो।
इस प्रकार स्वामी जी ने 1921 के अन्त तक दिल्ली में आसन जमाया। उसी समय काँग्रेस का अधिवेशन अहमदाबाद में हुआ। इसकी अध्यक्षता स्वामी जी ने की। पंजाब सरकार स्वामी जी को गिरफ्तार करना चाहती थी। अमृतसर में अकालियों ने गुरु का बाग में सरकार से मोर्चा ले रखा था। स्वामी जी अमृतसर पहुंच गए। स्वर्ण मन्दिर में पहुंचकर ‘अकाल तख्त’ पर एक ओजस्वी भाषण दे डाला। ‘गुरु का बाग’ में पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर 1 वर्ष 4 मास की जेल की सजा दे दी। बाद में 15 दिन में ही रिहा कर दिया गया। अमृतसर में स्थान-स्थान पर स्वामी जी का अभिनन्दन हुआ।
बाद में कांग्रेस से मतभेद होने के कारण स्वामी जी ने उसे छोड़ दिया। हिन्दू-संगठन तथा हिन्दू महासभा में काम करने लगे। स्वामी श्रद्धानन्द जी ने शुद्धि कार्य प्रारम्भ किया। जब मौलाना मौहम्मद ने भारत के अछूतों की हिन्दू-मुसलमानों में बराबर बाँटने का प्रस्ताव रखा तो स्वामी जी अपने भाईयों को बचाने के लिए तैयार हुए। मलकाना राजपूतों को स्वामी जी ने उनकी इच्छा से आर्य समाज में मिला लिया। फिर लगभग 2000 राजपूतों को आर्यसमाज में मिलाया। इसके बाद शुद्धि सभाएं शुरु हो गई। गाँव-गाँव और शहर-शहर में अछूत समझे जाने वाले लोगों को आर्यसमाज में मिलाया। जगह-जगह प्रीति भोज किए गए। इससे मुस्लिम नेता नाराज हो गए। स्वामी जी के पास रोजाना धमकी भरे पत्र आने लगे।
इस शुद्धि आन्दोलन का महात्मा गाँधी ने विरोध किया। शुद्धि के विरोध में महात्मा गाँधी ने उपवास रखने शुरू कर दिये। उन्होंने ‘यंग इण्डिया’ में लेख लिखकर हिन्दू-मुस्लिम विरोध का कारण स्वामी श्रद्धानन्द को ठहराया। कुरान और इस्लाम की खूब प्रशंसा की और सत्यार्थ प्रकाश  और उसके मानने वालों के लिए तिरस्कार सूचक शब्दों का प्रयोग किया। इससे मुसलमान पूर्ण रूप से भड़क गये और स्वामी जी की हत्या का षड्यन्त्र रचकर 23 दिसम्बर, 1926 को मतान्ध अब्दुल रशीद ने स्वामी जी की गोली मारकर हत्या कर दी। सेवक धर्मसिंह मिर्जापुर कुरुक्षेत्र ने पापी को पकड़ना चाहा तो उन्हें भी गोली का शिकार होना पड़ा, सेवक की जांघ में भी गोली लगी। भागते हत्यारे को स्नातक धर्मपाल विद्यालंकार ने दबा लिया व बाद में उसे पुलिस को पकड़ा दिया गया। कल्याण मार्ग का पथिक आर्य पथिक लेखराम के पथ का अनुगामी बना। 25 दिसम्बर शाम के वक्त जमुना के किनारे जनता अपने नेता के भौतिक शरीर को अग्नि की पवित्र ज्वालाओं को भेंट कर खाली हाथ लौट आई।
स्वामी जी के इन अद्भुत कार्यों के कारण आज तक आर्य जनता उनके पावन स्मरण से अपने आपको उत्साहित कर आर्य संवर्द्धन के कार्य में संलग्न है।


रविवार, 29 जनवरी 2012

कौन थी राधा ?


कौन थी राधा ?

पिछले दिनों न्यायालय ने लव इन रिलेशनशिप के मामले में योगिराज श्रीकृष्ण और राधा को घसीट लिया। ऐतिहासिक दृष्टिकोण से इस विषय पर चर्चा आवश्यक है। विडम्बना तो यह है कि श्री कृष्ण के भक्त कहलाने वाले भी श्रीकृष्ण को लांछित कर गौरवान्वित हो रहे हैं। लेखक।


प्रिय पाठकवृन्द! प्राचीन भारतीय संस्कृति को नीचा दिखाने के लिए पश्चिम की कुसभ्यता का अडंगा समाचार पत्र, पत्रिकाओं व दूरदर्शन आदि के माध्यम से बड़े-बडे़ षड्यंत्र रचकर भारत के घर-घर में भेजा जा रहा है। गुलामी के संस्कारों में जीने वाला ‘इण्डिया’ इसे अपनाने में गौरव समझता है और जिस नग्नता को भारत स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है, उसे ‘इण्डिया’ न्यायालय के माध्यम से भारत पर थोंप रहा है। भारत की जीवन शैली का आहार, विचार, व्यवहार व परिवार सब कुछ मर्यादा में बँधा होता था, पर मुक्त यौनाचार के इच्छुक इण्डिया ने पश्चिम के डॉक्टरों और वैज्ञानिकों का नाम लेकर सब मर्यादाएँ तोड़ दीं। आश्चर्य तो इस बात का है कि अब पुराणों का नाम लेकर भी पश्चिम की नग्नता भारत में पैर जमाने लगी है।
वर्तमान शैली में भारत का इतिहास लिखने वाले इतिहासकारों ने पुराणों को ऐतिहासिक स्रोत के रूप में कभी स्वीकार नहीं किया। यहाँ तक कि ऐतिहासिक ग्रंथो- रामायण, महाभारत को भी काल्पनिक कहकर हटा दिया और विडंबना दखिये कि अब नग्नता का प्रवेश कराने के लिए उन्हीं पुराणों को प्रमाण के रूप में प्रस्तुत कर दिया। श्री जगदीश सिंह गहलोत ने ‘राजस्थान के राजवंशों का इतिहास’ मे लिखा है-
‘पुराण एक गपोड़ गाथाओं का भण्डार है जो सुप्रसिद्ध इतिहासज्ञ  के पं. चिन्तामणि विनाया वैद्य के मतानुसार ई. सन् 300 से 900 के बीच बने हैं। पुराणों को शुद्ध इतिहास का महत्त्व नहीं दिया जा सकता।’
अन्य इतिहासकार भी इन्हें महर्षि वेदव्यास की रचना तो दूर किसी अन्य एक विद्वान् की एक समय में लिखी रचना भी नहीं मानते। फिर ऐसे पुराणों में वर्णित कवि कल्पित राधा को भारत का सर्वोच्च न्यायालय कैसे मान्यता दे सकता है ? और यदि राधा को मान्यता मिलती है तो क्या सर्वोच्च न्यायालय व देश के कम्युनिस्ट इतिहास पुराणों में वर्णित श्रीकृष्ण से जुड़े अन्य चमत्कारों को मानने की भी उदारता दिखाएँगे ? यथा-
जन्म के समय श्रीकृष्ण चतुर्भुज रूप में आये कारागार में उनके माता-पिता के बंधन अपने आप टूट गये।
उन्होंने बाल्यावस्था में ही पूतना, शकटासुर जैसे अनेक विकराल राक्षसों को मारा, सैकड़ों फनों वाले कालिया नाग का मर्दन किया।
गोवर्धन पर्वत कई दिनों तक अपनी उंगली पर उठाए रखा।
उनकी 16108 रानियाँ थीं व उनके सभी से 10-10 पुत्र हुए।
आकाश में कहीं स्वर्ग है जहाँ इन्द्र शासन करता है आदि।
राधा को मैं काल्पनिक इस आधार पर कह रहा हूँ कि श्रीकृष्ण अपने समय में महान आदर्श चरित्र वाले माने जाते थे। महाभारत के सभी प्रमुख पात्र भीष्म, द्रोण, व्यास, कर्ण, अर्जुन, युधिष्ठिर आदि श्रीकृष्ण के महान-चरित्र की प्रशंसा करते थे। उस काल में भी परस्त्री से अवैध संबंध रखना दुराचार माना जाता था, तभी तो भीम ने द्रौपदी की ओर उठने वाली कीचक की कामी (कामुक) आंखें निकाल लीं थीं। यदि श्रीकृष्ण का भी राधा नामक किसी औरत से दुराचार हुआ होता तो श्रीकृष्ण पर मिथ्या दोषारोपण करने वाला शिशुपाल उसे कहने से न चूकता। सम्पूर्ण महाभारत में केवल कर्ण का पालन करने वाली माँ राधा को छोड़कर इस काल्पनिक राधा का नाम नहीं है, जिसके आधार पर भारत का, नहीं नहीं ‘इण्डिया’ का सर्वोच्च न्यायालय राधा-कृष्ण की तरह भारत के जवान स्त्री-पुरुष को विवाह के बंधन में न पड़कर साथ रहने अर्थात् दुराचार करने की स्वतंत्रता देना चाहता है।
भागवत् पुराण में श्रीकृष्ण की बहुत सी लीलाओं का वर्णन है, पर यह राधा वहाँ भी नहीं है। राधा का वर्णन मुख्य रूप से ब्रह्मवैवर्त पुराण में आया है। यह पुराण वास्तव में कामशास्त्र है, जिसमें श्रीकृष्ण राधा आदि की आड़ में लेखक ने अपनी काम पिपासा को शांत किया है, पर यहाँ भी मुख्य बात यह है कि इस एक ही ग्रंथ में श्रीकृष्ण के राधा के साथ भिन्न-भिन्न सम्बन्ध दर्शाये हैं, जो स्वतः ही राधा को काल्पनिक सिद्ध करते हैं। देखिये-
ब्रह्मवैवर्त पुराण ब्रह्मखंड के पाँचवें अध्याय में श्लोक 25,26 के अनुसार राधा को कृष्ण की पुत्री सिद्ध किया है। क्योंकि वह श्रीकृष्ण के वामपार्श्व से उत्पन्न हुई बताया है।
ब्रह्मवैवर्त पुराण प्रकृति खण्ड अध्याय 48 के अनुसार राधा कृष्ण की पत्नी (विवाहिता) थी, जिनका विवाह ब्रह्मा ने करवाया। इसी पुराण के प्रकृति खण्ड अध्याय 49 श्लोक 35,36,37,40, 47 के अनुसार राधाा श्रीकृष्ण की मामी थी। क्योंकि उसका विवाह कृष्ण की माता यशोदा के भाई रायण के साथ हुआ था। गोलोक में रायण श्रीकृष्ण का अंशभूत गोप था। अतः गोलोक के रिश्ते से राधा श्रीकृष्ण की पुत्रवधु हुई।
क्या ऐसे ग्रंथ और ऐसे व्यक्ति को प्रमाण माना जा सकता है ? हिन्दी के कवियों ने भी इन्हीं पुराणों को आधार बनाकर भक्ति के नाम पर शृंगारिक रचनाएँ लिखी हैं। ये लोग महाभारत के कृष्ण तक पहुँच ही नहीं पाए। जो पराई स्त्री से तो दूर, अपनी स्त्री से भी बारह साल की तपस्या के बाद केवल संतान प्राप्ति हेतु समागम करता है, जिसके हाथ में मुरली नहीं, अपितु दुष्टों का विनाश करने के लिए सुदर्शन चक्र था, जिसे गीता में योगेश्वर कहा गया है। जिसे दुर्योधन ने भी पूज्यतमों लोके (संसार में सबसे अधिक पूज्य) कहा है, जो आधा पहर रात्रि शेष रहने पर उठकर ईश्वर की उपासना करता था, युद्ध और यात्रा में भी जो निश्चित रूप से संध्या करता था। जिसके गुण, कर्म, स्वभाव और चरित्र को ऋषि दयानन्द ने आप्तपुरुषों के सदृश बताया, बंकिम बाबू ने जिसे सर्वगुणान्ति और सर्वपापरहित आदर्श चरित्र लिखा, जो धर्मात्मा की रक्षा के लिए धर्म और सत्य की परिभाषा भी बदल देता था। ऐसे धर्म-रक्षक व दुष्ट-संहारक कृष्ण के अस्तित्त्व को मानने की उदारता भी क्या भारत का सर्वोच्च न्यायालय और दुराग्रहग्रस्त इतिहास वेत्ता दिखाएंगे ?

बुधवार, 28 दिसंबर 2011

भारत को भारत रहने दो


भारत को भारत रहने दो

ठहरो इण्डिया कहने वालों, भारत को भारत रहने दो,
यदि भला चाहते हो अपना, गंगा को सीधा बहने दो।

आर्यों की भूमि आर्यावर्त, भरत से भारत कहलाया,
हिन्दुस्तान बना हिन्दू से, इंडिया है फिरंगी की माया।

आर्यावर्त को पारसमणि, ऋषि दयानन्द ने बतलाया था,
विश्व गुरु बनाने के लिए, विष कई बार पचाया था।

‘मैं भारत हूँ’ कहने वाला, रामतीर्थ सन्यासी था,
विवेकानन्द के लिए इसका, कण-कण मथुरा काशी था।

भारत के लिए मंगल पाण्डे, शोणित की भाषा बोला था,
नाना की बेटी मैनावती का, भी तो बासन्ती चोला था।

इसी माता के लिए हजारों, हँसकर चढ़ गये फाँसी पर,
कितने वीर कुर्बानी दे गये, मेरठ, ग्वालियर, झाँसी पर।

तांत्या, कुँवर, नाना, बहादुर,तुलाराम, झाँसी की रानी,
अपने सिरों की भेट दे गये, नाहर से अद्भुत वे दानी।

रामसिंह कूका, बिरसा मुण्डा, कितने ही बलवन्त फड़के थे,
जिनकी सिंह-गर्जना सुन, दिल अंग्रेजों के धड़के थे।

‘भारत भवन’ बना श्याम ने, क्रांति देवी का किया आह्वान,
योगी अरविन्द मैडम कामा से, आये साधक वीर महान।

मँा का चीर हरण होता देख, चापेकर बन्धु बढ़े आगे,
मिस्टर रैण्ड को मार गिराया, सोये वीर भारत के जागे।

माँ के लिए ही बहा चुके थे, तिलक जी आँखों का पानी,
एक बून्द भी न शेष मिला, स्वर्ग सिधारी जब उनकी रानी।

‘भारत माता’ दल के नेता, थे अजीतसिंह सूफी अम्बाप्रसाद,
‘अभिनव भारत’ सावरकर का, माता का हरता विषाद।

सतावन के समर के लिए, सावरकर ने उगली ज्वाला थी,
इसीलिए तो माता के गल, सजी मुण्डों की माला थी।

दुश्मन के घर जा धींगड़ा ने, दागी भारत की गोली थी,
हँसत-हँसते फाँसी चढ़, जय भारत माँ की बोली थी।

कैसे कोई भुला पाएगा, परमानन्द की दर्द कहानी,
माता की धुन में मस्त हुए, जा पहुँचे वीर काला पानी।

इसी धुन में अजीतसिंह, बरसों रहे वनवासी थे,
रासबिहारी, हरदयाल, पाल, भी क्या कम संन्यासी थे।

शचीन्द्रनाथ ने इस चमन के, थे पेड़ रक्त से सींचे,
प्रत्येक वीर शपथ लेता थ, जा चित्तौड़ दुर्ग के नीचे।

अवध बिहारी, करतार सराभा, कन्हाई दत्त औ काशीराम,
गैंदालाल, गणेशशंकर, प्रफुल्ल चाकी से पुष्प् ललाम।

विष्णु पिंगले, अमीरचन्द, फाँसी चढ़े बसन्त विश्वास,
हार्डिंग पर बम दे मारा, करने ब्रिटिश का समूल विनाश।

सतावन का दाग धो दिया, बब्बर खालसा वीरों ने,
शोणित से किया तर्पण माँ का, सोहन से रणधीरों ने।

भारत के लिए लहू बहा था, श्रद्धानन्द सन्यासी का,
लेखराम और राजपाल ने, किया सिंचन धरती प्यासी का।

भारत में शतबार जन्म के, इच्छुक बिस्मिल लहरी थे,
खुदीराम अशफाक व रोशन, इसके सजग प्रहरी थे।

सइमन कमिशन भारत छोड़ो, यूं पंजाब केसरी दहाड़ा था,
राजगुरु, सुखदेव, भगत ने, ब्रिटिश का तख्त उखाड़ा था।

वीर आजाद ने रक्त बहाया, भारत माँ के पसीने पर,
शत्रु के सौ-सौ वार सहे, अपने फौलादी सीने पर।

भगवती चरण दुर्गाभाभी, बाल मुकुन्द से बलिदानी,
जिनके सुख माँ को अर्पित थे, और हुई अर्पित जवानी।

माँ की आहों को सुनकर, उधम का लावा फूटा था,
ओडायर को मार गिराया, गोरों का सपना टूटा था।

गोरे-तिमिर के महानाश को, सूर्यसेन चमका सूरज सा,
इन माँ के बेटों का दर्शन, होता है मन्दिर की मूरत सा।

खून के बदले मिले आजादी, कह नेता जी हुँकारे थे,
‘जय हिन्द’ का लगा नारा, लड़े माँ के राजदुलारे थे।

मँा की भक्ति में रंगे हुए, वे पागल थे दीवाने थे,
गोरे शत्रु से टकराने को, हरदम सीना ताने थे।

भारत मां के लिए ही गूंजा, ‘वन्दे मातरम्’ नारा था,
‘अंग्रजों भारत छोड़ो’ यह, बच्चा-बच्चा ललकारा था।

अगणित हीरे सजे हुए हैं, माता की सुन्दर माला में,
उन भूलों को नमन करूँ मैं, जो मिट गये वधशाला में।

देश पर मरने वाला वीर, जय भारत मां की बोला था,
हृदय में ज्वाला धधकी थी, हर वीर बना बम गोला था।

आजादी मिलते ही हमने, वीरों की मां को भुला दिया,
लार्ड मैकाले के सपनों का, भारत को ‘इंडिया’ बना दिया।

इंडिया ले गया आजादी को, बंदी अभी तक भारत है,
बिगड़ चुकी है भाषा-भूषा, चरित्र हुआ यहाँ गारत है।

श्रम का तो सम्मान नहीं, माडलिंग पर इनाम मिले,
इतिहासकारों ने गुल खिलाये, देशभक्त गुमनाम मिले।

धूल भरा हीरा है भारत, इंडिया रहे आसमानों में,
भारत के तन पर फट चीथड़े, इंडिया विदेशी परिधानों में।

देह प्रदर्शन करती नारी, ऋषि संस्कृति का कर उपहास,
यौन शिक्षा की वकालत कर, शिक्षा का किया सत्यानश।

चील और कव्वे का भोजन, खाने लगे इंडिया के लोग,
धर्म मोक्ष सब छूट गये, सबको लगा पैसा का रोग।

भारत लड़ता आतंकवाद से, इंडिया करता समझौते,
यदि समय पर जग जाते, तो पाक के मालिक हम होते।

वह देश धरा से मिट जाता है, भूले जो अपने बलिदान,
निज संस्कृति भाषा-भूषा का, जिसको नहीं तनिक अभिमान।

इसीलिए कहता हूँ सुन लो- ओ इंडिया के मतवालों,
भारत को भारत रहने दो, घर में विषधर मत पालो।

युगों-युगों से चलती आई, धारा कभी न सूखेगी,
ऋषि संस्कृति के हत्यारों, पीढ़ी तुम पर थूकेगी।

फिरर से कोई रामदेव बाबा, भारत स्वाभिमान जगाएगा,
दीक्षा ले केाई राजीव दीक्षित, फैल विश्व में जाएगा।।

सोमवार, 26 दिसंबर 2011

वीर भगतसिंह का-----


वीर भगतसिंह का समाजवाद व राष्ट्र-प्रेम

प्रिय पाठकवृन्द ! वर्तमान में वैज्ञानिक सुख-सुविधाओं का उपभोग करता हुआ मानव उनके आविष्कारक वैज्ञानिकों का गुणगान करता हुआ यह भूल जाता है कि उनमें से बहुत से वैज्ञानिक नास्तिक थे अर्थात् संसार को प्रकाश व सुविधा देने के कारण ही उसका सम्मान किया जाता है, नास्तिक होने के कारण नहीं। अपने प्राणों की आहुति देकर हमें स्वतंत्र कराने वाले वीरों के विषय में भी यही बात है अर्थात् पं. रामप्रसाद बिस्मिल इसलिए आदरणीय नहीं है कि वे सच्चे आस्तिक थे और वीर भगतसिंह इसलिए आदरणीय नहीं है कि वे कट्टर नास्तिक थे। देश की जनता में आज भी उनके लिए जो प्यार और सम्मान है, उसका कारण उनका राष्ट्र-प्रेम व बलिदान है, पर कुछ दशकों से मार्क्सवादी विचारधारा के लोग इस बात से परेशान हैं कि भगतसिंह को वीर क्रान्तिकारी ही क्यों माना जात है, नास्तिक, लेनिनवादी व मार्क्सवादी क्यों नहीं। ये लोग इस बात को छिपाने का प्रयास करते हैं कि भगतसिंह की पृष्ठभूमि आर्यसमाजी व क्रांतिकारी थी। केवल लेनिन व मार्क्स के साहित्य से ही वे क्रांतिकारी नहीं बने थे। निर्वासित हुए चाचा अजीतसिंह के वियोग में बरसते चाची हरनाम कौर के आंसू नन्हें भगत को अंग्रजों से लड़ने के लिए प्रेरित कर रहे थे। पिता किशनसिंह की अंग्रजों से होने वाली टक्कर को वे प्रतिदिन देखते थे। जलयांवाला बाग के हत्याकांड से वे परिचित थे। शहीद करतार सिंह सराभा को वे अपना आदर्श मानते थे। कूका आंदोलन के प्रवर्तक गुरु रामसिंह, सूफी अम्बाप्रसाद, मदनलाल ढींगारा, बलवन्त सिंह जैसे बलिदानी वीर उनमें क्रांतिभाव जगाते थे और सबसे मुख्य बात तो यह है कि उन्हें इस बात का स्मरण रहता था कि उनके दादा सरदार अर्जुनसिंह न यज्ञोपवीत के समय घोषणा की थी कि उन्हें (भगतसिंह को) खिदमते वतन के लिए वक्फ कर दिया है।
भगतसिंह को मार्क्सवादी व नास्ति प्रचारित करते समय ये लोग अन्य किसी भी आस्ति देशभक्त की चर्चा नहीं करते और सम्मान नहीं देते, फिर वह चाहे नेता सुभाष चन्द्र हो या भगतसिंह का अन्तरंग साथी चन्द्रशेखर आजाद हो। जबकि भगतसिंह ने किसी भी बलिदानी वीर की इसलिए उपेक्षा नहीं कि की वह मार्क्सवादी नहीं था और आस्तिक था। काकोरी के शहीदों के विषय में भगतसिंह ने ‘किरती’ जनवरी 1928 में ‘विद्रोही’ के नाम से लिखा। वे चारों वीर (रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला, रोशनसिंह व राजिन्द्र लाहिड़ी) आस्तिक देशभक्त थे। भगतसिंह ने लिखा- ‘‘नीचे हम उन चारों के हालात संक्षेप में लिखते हैं, जिससे यह पता चले कि यह अमूल्य रत्न मौत के सामने खड़े होते भी किस बहादुरी से हँस रहे थे।.....
श्री राजिन्द्र लाहिड़ी...... आपका स्वभाव बड़ा हँसमुख और निर्भय था। आप मोत का मजाक उड़ाते रहते थे।
श्री रोशनसिंह जी...... (फाँसी के) तख्ते पर खडे़ होने के बाद आपके मुख से जो आवाज निकली वह यह थी - वन्देमातरम्।
श्री अशफाक उल्ला...... आप श्री रामप्रसाद का दायां हाथ थे, मुसलमान होने के बावजूद आपका कट्टर आर्यसमाजी धर्म से हद दर्जे का प्रेम था। दोनों प्रेमी एक बड़े काम के लिए अपने प्राण उत्सर्ग कर अमर हो गए।
श्री रामप्रसाद बिस्मिल...... फाँसी से दो दिन पहले सी.आई.डी. के मि. हैमिल्टन आप लोगों से मिन्नतें करते रहे कि आप मौखिक रूप से सब बता दो, आपको पांच हजार रुपया नकद दिया जाएगा और सरकारी खर्चे पर विलायत भेजकर बैरिस्टर की पढ़ाई करवाई जाएगी। लेकिन आप कब इन बातों की परवाह करते थे। आप हुकूमतों को ठुकराने वाले व कभी कभार जन्म लेने वाले वीरों में से थे।..’’
मदनलाल ढींगरा परम आस्तिक देशभक्त थे, उनकी शहादत को नमन करते हुए भगतसिंह ने लिखा- ‘‘धन्य था वह वीर ! धन्य है उनकी याद ! मुर्दा देश के अमूल्य हीरे को बारम्बार नमस्कार !’’ (किरती, मार्च 1928)
श्री बलवन्त सिंह के विषय में लिखा है- ‘‘वे बड़े ईश्वरभक्त थे।’’ (‘चांद’ फाँसी अंक नवम्बर 1928)
1924 में लिखे व 28 फरवरी 1933 के ‘हिन्दी सन्देश’ में प्रकाशित ‘पंजाबी की भाषा..’ लेख में भगतसिंह लिखते हैं- ‘‘दोनों (स्वामी विवेकानन्द और स्वामी रामतीर्थ) विदेशों में भारतीय तत्त्वज्ञान की धाक जमाकर स्वयं भी जबत् प्रसिद्ध हो गए,.... जहाँ स्वामी विवेकानन्द कर्मयोग का प्रचार कर रहे थे, वहाँ स्वामी रामतीर्थ भी मस्तानावार गाया करते थे-
हम रूखे टुकड़े खायेंगे, भारत पर वारे जाएंगे।
हम सूखे चने चबाएंगे, भारत की बात बनाएंगे।
हम नंगे उमर बिताएंगे, भारत पर जान मिटाएंगे।
इतना महान देश तथा ईश्वर-भक्त हमारे प्रान्त में पैदा हुआ हो, परन्तु उसका स्मारक तक न दीख पड़े, इसका कारण साहित्यिक फिसड्डीपन के अतिरिक्त क्या हो सकता है ?’’
15 नवम्बर व 22 नवम्बर 1924 के ‘मतवाला’ में बलवन्तसिंह के नाम से भगतसिंह ‘विश्व प्रेम’ में लिखते हैं-‘‘वसुधैव कुटुम्बकम् ! जिस कवि सम्राट की यह अमूल्य कल्पना है, जिस विश्व प्रेम के अनुभवी का यह हृदयोद्गार है, उसकी महत्ता का वर्णन करना मनुष्य शक्ति से सर्वथा बाहर है।....... जिस दिन तुम सच्चे प्रचारक बनोगे इस अद्वितीय सिद्धान्त के, उस दिन तुम्हें माँ के सच्चे सुपुत्र गुरु गोविन्द सिंह की तरह कर्मक्षेत्र में उतरना पड़ेगा।... राणा प्रताप की तरह आयुपर्यन्त ठाकरें खानी होंगी, तब कहीं उस परीक्षा में उत्तीर्ण  हो सकोगे।
विश्वप्रेमी वह वीर है जिसे भीषण विप्लववादी, कट्टर अराजकतावादी कहने में हम लोग तनिक भी लज्जा नहीं समझते- वही वीर सावरकर।........
विश्वप्रेम की देवी का उपासक था ‘गीता रहस्य’ का लेखक पूज्य लोकमान्य तिलक।......
अरे ! रावण और बाली को मार गिराने वाले रामचन्द्र ने अपने विश्व प्रेम का परिचय दिया था भीलनी के झूठे बेरों को खाकर। चचेरे भाईयों में घोर युद्ध करवा देने वाले, संसार से अन्याय को सर्वथा उठा देने वाले कृष्ण ने परिचय दिया अपने विश्व प्रेम का- सुदामा के कच्चे चावलों को फांक जाने में।
6 जून 1929 को दिल्ली के सेशन जज की अदालत में दिये अपने बयान में भगतसिंह ने कहा था- ‘‘इधर देश में जो नया आन्दोलन तेजी के साथ उठ रहा है, और जिसकी पूर्व सूचना हम दे चुके हैं वह गुरु गोविन्द सिंह, शिवाजी, कमालपाशा, रिजाखां, वाशिंगटन, गैरीबाल्डी, लाफापेट और लेनिन के आदर्शों से ही प्रस्फुरित है और उन्हीं के पदचिह्नों पर चल रहा है।’’........
नेजवान भारत सभा, लाहोर का घोषणापत्र 11 से 13 अप्रैल 1928 को तैयार किया गया, जिसमें लिखा था- ‘‘गुरु गोविन्द सिंह को आजीवन जिन  नारकीय परिस्थितियों का सामना करना पड़ा था, हो सकता है उससे भी अधिक नारकीय परिस्थितियों का सामना करना पड़े।’’......
असेम्बली हाल में बम फैंकने के बाद दिल्ली जेल से 26 अप्रैल 1929 को अपने पिता के नाम पत्र लिखकर भगतसिंह ने कुछ पुस्तकें मँगवाई, जिनमें तिलक जी की ‘गीता रहस्य’ भी थी। गुरु रामसिंह के विषय में तो यहां ताक लिखा है- ‘‘गुरु रामसिंह बड़े तेजस्वी तथा प्रभावशाली व्यक्ति थे। उनके असाधारण आत्मबल सम्बन्धी बहुत सी बातें प्रसिद्ध हैं। कहते हैं कि वे जिसके कान में दीक्षा मन्त्र फंूक देते थे वही उनका परम भक्त और शिष्य हो जाता था।.... ऐसी अनेक घटनाएं हैं। जो भी हो, इतना तो मानना ही पडे़गा कि गुरु जी ईश्वर भक्ति तथा उच्च चरित्र के कारण एक महान शक्तिशाली महापुरुष थ। अतः उपरोक्त घटनाएं असम्भव नहीं।
चिन्तनशील होने के कारण मानके के विचारों में परिवर्तन होता ही रहता है। यह परिवर्तन कभी किसी घटना विशेष के कारण हो सकता है, किसी व्यक्ति या साहित्य के संग भी हो सकती है। शिकारी लक्ष्मणदास हिरणी के गर्भस्थ शिशुओं को मरते देखकर शिकार त्यागकर वैरागी माधोदास बन जात है और फिर वही माधोदास गुरु गोविन्छ सिंह की प्रेरणा से बंदा बैरागी बन हिन्दुओं की रक्षार्थ शस्त्र धारण कर इतिहास रचता है। मूर्तिपूजक पिता का बेटा मूलशंकर शिवरात की घटना से मूर्तिपूजा विरोधी हो जाता है। विज्ञान का विद्यार्थी नास्तिक गुरुदत्त महर्षि दयानन्द की अन्तिम लीला दर्शन कर दृढ़ आस्तिक बन जाता है। दुर्व्यसनों में फंसा नास्तिक मुंशीराम महर्षि दयानन्द के संग व सत्यार्थप्रकाश के स्वाध्याय से दृढ़ आस्तिक बन वकालत को ठोकर मार गुरुकुल कांगड़ी का आचार्य बन जाता है। जीवनभर ळवक पे दवूीमतम कहकर नास्तिकता का प्रचार करने वाला इंग्लैण्ड का विचारक ब्रेडला मृत्युशय्या पर ळवक पे ीवू ीमतम कह उठता है। फिर यदि आस्तिकता का चोगा पहनकर दीन-गरीबों का शोषण करने वाले लोगों को देखकर व लेनिन, मार्क्स आदि नास्तिक क्रांतिकारियों का साहित्य पढ़कर भगतसिंह उनकी विचारधारा से प्रभावित हो गये हों, तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है। क्योंकि उन क्रांतिकारियों का मुख्य विषय देश की शोषित, पीड़ित जनता का उद्धार करना था, ईश्वर-उपासना नहीं। और भगतसिंह का भी यही उद्देश्य था। अतः धर्म के नाम पर होने वाले भेदभाव छुआछूत, सांप्रदायिक दंगे आदि का कारण ईश्वर और धर्म को मानकर इन्हें परे हटाने का मार्क्स आदि की तरह भगतसिंह का भी विचार बना। ‘किरती’ मई 1928 में ‘धर्म और हमारा स्वतंत्रता संग्राम’ शीर्षक में वे लिखते हैं-
‘‘रूसी महात्मा टालस्टॉय ने अपनी पुस्तक Essay and Letters में धर्म पर बहस करते हुए इसके तीन हिस्से किए हैं-
1. Essentials of Religion,  यानी धर्म की जरूरी बातें अर्थात् सच बोलना, चारी न करना, गरीबों की सहायता करना, प्यार से रहना, वगैरा।
2. Philosophy of Religion, यानी जन्म-मृत्यु, पुनर्जन्म, संसार रचना आदि का दर्शन।
3. Rituals of Religion, यानी रस्मों-रिवाज वगैरा।......
सो यदि धर्म पीछे लिखी तीसरी और दूसरी बात के साथ अन्धविश्वास को मिलाने का नाम है, तो धर्म की कोई जरूरत नहीं। इसे आज ही उड़ा देना चाहिये। यदि पहली और दूसरी बात में स्वतंत्र विचार मिलाकर धर्म बनता हो, तो धर्म मुबारक है।.......... हमारी आजादी का अर्थ केवल अंग्रजी चंगुल से छुटकारा पाने का नाम नहीं, वह पूर्ण स्वतंत्रता का नाम है - जब लोग परस्पर घुल-मिलकर रहेंगे और दिमागी गुलामी से भी आजाद हो जाएंगे।’’
ऐसा अनुमान है कि जिस गम्भीरता से भगतसिंह ने नास्तिकवाद को पढ़ा यदि उसी गम्भीरता से वैदिक आध्यात्मिक ग्रन्थों को भी पढ़ा होता या किसी वैदिक विद्वान् से शंका-समाधान किया होता, तो वे मार्क्सवाद की जगह वैदिक समाजवाद का प्रचार करते, क्योंकि नास्तिकवाद के पक्ष में उनके प्रश्न इतने मजबूत नहीं हैं। यद्यपि ‘मै नास्तिक क्यों हूं’ शीर्षक में भगतसिंह ने लिखा है- ‘‘मैंने अराजकतावादी नेता बाकुनिन को पढ़ा, कुछ साम्यवाद के पिता मार्क्स को, किन्तु ज्यादातर लेनिन, त्रात्स्की व अन्य लोगों को पढ़ा जो अपने देश में सफलतापूर्वक क्रांति लाए थे। वे सभी नास्तिक थे।...... 1926 के अन्त तक मुझे इस बात का विश्वास हो गया कि सर्वशक्तिमान परम आत्मा की बात-........ एक कोरी बकवारस है।’’ तथापि 1927 में अमरचन्द के नाम पत्र के अंत में वे लिखते हैं-
‘‘.......अभी तक कोई मुकदमा मेरे खिलाफ तैयार नहीं हो सका और ईश्वर ने चाहा तो हो भी नहीं सकेगा। आज एक बरस होने को आया, मगर जमानत वापस नहीं ली गई। जिस तरह ईश्वर को मंजूर होगा।.........’’
मई 1927 में भगतसिंह ने ‘विद्रोही’ नाम से ‘किरती’ (पंजाबी पत्रिका) में ‘काकोरी के वीरों से परिचय’ लेख में अश्फाकउल्ला, रोशनसिंह, राजेन्द्र लाहिड़ी, रामप्रसाद बिस्मिल, मन्मथनाथ गुप्त, जोगेशचन्द्र चटर्जी आदि का परिचय देकर अन्त में लिखा- ‘‘ईश्वर उन्हें बल व शक्ति दे कि व वीरता से अपने (भूख हड़ताल के) दिन पूरे करें और उन वीरों के बलिदान रंग लाएं।’’
फरवरी 1928 में ‘महारथी’ में बी.एस. सिन्धू नाम से भगतसिंह ने ‘कूका विद्रोह-।’ लेख के अंत में लिखा है- ‘‘उन अज्ञात लोगों के बलिदानों का क्या परिणाम हुआ, सो वही सर्वज्ञ भगवान जाने। परन्तु हम तो उनकी सफलता-विफलता का विचार छोड़ उनके निष्काम बलिदान की याद में एक बार नमस्कार करते हैं।’’
नवम्बर 1928 ‘चांद‘ (फांसी अंक) में देशभक्त वीर सूफी अम्बाप्रसाद के विषय में लिखकर भगतसिंह ने अंत में लिखा है- ‘‘आज सूफी जी इस देश में नहीं हैं। पर ऐसे देशभक्त का स्मरण ही स्फूर्तिदायक हाता है। भगवान उनकी आत्मा को चिर शांति दे।’’
जून 1928 ‘किरती’ में ‘सांप्रदायिक दंगे और उनका इलाज’ लेख में लिखा है- ‘‘बस किसी व्यक्ति का सिख या हिन्दू होना मुसलमानों द्वारा मारे जाने के लिए काफी था और इसी तरह किसी व्यक्ति का मुसलमान होना ही उसकी जान लेने के लिए पर्याप्त तर्क था। जब स्थिति ऐसी हो तो हिन्दुस्तान का ईश्वर ही मालिक है।’’
‘मैं नास्तिक क्यों हूं’ लेख में भगतसिंह ने यह भी स्वीकार किया है कि ‘विश्वास’ (ईश्वर पर) कष्टों को हल्का कर देता है, यहां तक कि उन्हें सुखकर बना सकता है। ईश्वर से मनुष्य को अत्यधिक सांत्वना देने वाला एक आधार मिल सकता है। ‘उसके’ बिना मनुष्य को स्वयं अपने ऊपर  निर्भर होना पड़ता है। तूफान और झंझावात के बीच अपने पांवों पर खड़ा रहना कोई बच्चों का खेल नहीं है।...’’(5-6 अक्तूबर 1930)
प्रिय पाठकवृन्द ! उपरोक्त सभी प्रमाण श्री चमनलाल द्वारा सम्पादित ‘भगतसिंह के संपूर्ण दस्तावेज’ से लिये हैं। सम्पादक का उद्देश्य भगतसिंह नास्तिक व समाजवाद का प्रचार करना है। यह ठीक है कि भगतसिंह नास्तिक व समाजवाद के समर्थक थे और किसान-मजदूरों की शोषण-मुक्ति की बात करते थे, लेकिन उनके इस विचार के पीछे की प्रेरक-शक्ति भारत राष्ट्र के किसी वर्ग को शोषित-दलित नहीं देख सकते थे। उनका वामपंथ अपने मिजाज, प्रेरणा, चरित्र और चिंतन में भारत से जोड़ने वाला था, आजकल के वामपंथी ढर्रे की तरह भारत के अतीत, संस्कृति व सभ्यता से घृणा करने वाला नहीं।
ये लोग भगतसिंह के लेख ‘मै नास्तिक क्यों हूं’ को आधार बनाकर उन्हें पूर्ण रूप से आंकने का प्रयास करते हैं। यह लेख 1979 में श्री विपिन चन्द्र प्रकाश में लाए। लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि भगतसिंह ने यह लेख तब लिखा था, जब फांसी का फंदा सामने था, जब चारों ओर अंग्रेजी सरकार का अत्याचार चल रहा था, गरीब, मजदूर और किसान अपमानित और शोषित हो रहे थे, आशा की किरण कम दिखाई दे रही थी। अगर भगवान के प्रति आस्था और प्यार स्वाभाविक है तो भगवान के प्रति नाराजगी भी उतनी ही स्वाभाविक है। गायादि पशुओं पर होने वाले अत्याचार को देखकर वेदों के परम विद्वान्, ईश्वर के सच्चे भक्त महर्षि दयानन्द का हृदय कांप उठा और ईश्वर को उलाहना देते हुए कहते हैं-‘‘हे परमेश्वर ! तू क्यों इन पशुओं पर, जो कि बिना अपराध मारे जाते हैं, दया नहीं करता ? क्या उन पर तेरी प्रीति नहीं है ? क्या उनके लिये तेरी न्यायसभा बन्ध हो गई है ? क्यों उनकी पीड़ा छुड़ाने पर ध्यान नहीं देता, और उनकी पुकार नहीं सुनता। क्यों इन मांसाहारियों के आत्माओं में दया प्रकाश कर निष्ठुरता, कठोरत, स्वार्थपन और मूर्खता आदि दोषों को दूर नहीं करता ? जिससे ये इन बुरे कामों से बचें।’’ (गोकरुणानिधिः)
भगतसिंह की नास्तिकता का प्रचार करने वालों को इस तरफ भी ध्यान देना चाहिए। प्रसिद्ध लेखक श्री कुलदीप नैयर ने ‘शहीद भगतसिंह के क्रांति-अनुभव’ में लिखा है- ‘‘भगतसिंह के पिता ने उसे बताया कि महात्मा गांधी ने अंग्रेज सरकार को यह कह दिया है कि अगर इन तीनों नवयुवकों को फांसी पर लटाकाना है तो उन्हें कराची में हो रहे कांग्रेस सम्मेलन से पहले लटका देना चाहिए। भगतसिंह ने पूछा कि कांग्रेस का कराची सम्मेलन कब हो रहा है ? उसके पिता ने कहा कि मार्च महीने के अंत में। भगतसिंह ने इसके उत्तर में कहा कि यह तो बहुत प्रसन्नतादायक बात है क्योंकि गर्मियां आ रही हैं, इसलिए काल-कोठरी में सड़कर मरने से फांसी पर चढ़ जाना अपेक्षाकृत अच्छी बात है। लोग कहते हैं कि मौत के बाद बहुत अच्छी जिंदगीय मिलती है परन्तु मैं पुनः भारत में ही जन्म लूंगा, क्योंकि मैंने अभी अंग्रेजों का और सामना करना है। मेरा देश जरूर आजाद होगा।’’
श्री सुभाष रस्तोगी ने ‘क्रांतिकारी भगतसिंह’ में लिखा है- एडवोकेट प्राणनाथ ने अपने ऐ संस्मरण में इस प्रकार (उल्लेख) किया है: फिर मैंने (भगतसिंह से) पूछा- ‘आपकी अंतिम इच्छा क्या है ?’ उनका उत्तर था ‘बस यही कि फिर जन्म लूं और मातृभूमि की और अधिक सेवा करूं।’
पाठकवृन्द ! क्या पुनर्जन्म मानने वाला नास्तिक होता है ? क्या अन्याय, अत्याचार से पीड़ित जन के आंसू पोंछकर उन्हें प्रसन्नता देने वाला नास्तिक होता है ? क्या समूचे राष्ट्र का हित करने वाला नास्तिक होता है ? क्या परोपकार के लिए प्राणों की आहुति देने वाला नास्तिक होता है ?

गुरुवार, 22 दिसंबर 2011

हा! बलिदान का यह पुरस्कार


हा! बलिदान का यह पुरस्कार



प्रिय पाठकवृन्द ! जून महीने की समाप्ति पर समाचार पत्रों में एक आश्चर्यजनक समाचार छपा आरटीआई कार्यकर्ता मनोरंजन राय ने केन्द्रीय गृहमन्त्रालय से पूछा कि हमारे देश का क्या नाम है- इण्डिया, भारत या हिन्दुस्तान ? और हमारे देश की राष्ट्रीय भाषा क्या है? अधिकारी देश के नाम को स्पष्ट नहीं कर पाये और भाषा के विषय में कहा कि हमारे देश के संविधान में राष्ट्रीय भाषा के तौर पर किसी भाषा का उल्लेख नहीं है।
इससे कई वर्ष पूर्व भी ऐसा ही उत्तर मिला था जिसमें कहा गया था कि नेता जी सुभाष चन्द्र बोस का स्वतंत्रता प्राप्ति में क्या योगदान था, इसका कोई रिकॉर्ड भारत सरकार के पास नहीं है अर्थात् हम केवल 50-60 वर्षों में ही इतने स्वच्छन्द कृतघ्न और संवेदनहीन हो गये कि अपने पूर्वजों के बलिदान, राष्ट्र व राष्ट्रभाषा का नाम तक भूल गये। हमारी अवस्था कटी डोर वाली पतंग जैसी हो गई है, जिसके पतन की कोई सीमा निश्चित नहीं होती।
कुछ मास पूर्व क्रिकेट में भारत की शानदार विजय दिलाने वाले खिलाड़ी सचिन तेंदुलकर को समाचारपत्रों ने ब्राण्ड इण्डिया खिलाड़ी कहा और टेलीविजन वालों ने इसे ‘भारत का एकमात्र गौरव’ कहा। वास्तविकता तो यह है कि क्रिकेट खेल नहीं, व्यापार है। बहुराष्ट्रीय कम्पनियां स्पान्सर नहीं करें तो क्रिकेट का खेल नहीं हो सकता और यह भी सत्य है कि सचिन ने खेल पैसे के लिए ही खेला है, जिससे देश की गरीब जनता को कोई लाभ नहीं हुआ। फिर भी कुछ भोले लोग सचिन को ‘भारत रत्न’ देने की जोरदार सिफारिश कर रहे हैं।
क्या ऐसे लोगों ने कभी उनके लिये भी ‘भारत रत्न’ का सम्मान दिलाने की सोची-जिस सैनिक ने पहाड़ की बर्फीली चोटी पर रात को जागते हुए (ताकि हम आराम से सो सकें) अपने प्राणों की आहुति दे दी, जिस दशरथ मांझी ने 8 वर्षों की अपनी कड़ी मेहनत से पहाड़ काटकर 80 मील के रास्ते को 13 मील में बदल दिया, जिस गरीब मैकेनिक निरंजन सामल (ओड़िशा) ने पेड़ लगाने को जीवन का लक्ष्य बनाकर एक पूरा जंगल बना डाला ? क्या इन्होंने कभी मंगल पाण्डे, भगतसिंह, चन्द्रशेखर आजाद जैसे बलिदानियों को ‘भारत रत्न’ देने की सिफारिश की ? शायद ये वीर इनकी नजरों में आतंकवादी हैं, स्वामी दयानन्द साम्प्रदायिक हैं, वीर सावरकर कायर हैं।
यदि वास्तव में सचिन को ‘भारत रत्न’ दिया जाता है तो यह कैसा विचित्र लगेगा कि भारत का ‘भारत रत्न’ विदेशी (अमेरिका) कम्पनियों के कोक, पेप्सी बेचता हुआ नजर आएगा। मोबाइल फोन और इंजन ऑयल के सेल्समैन के रूप में हर मिनट टी.वी. पर दिखलाई पडे़गा। अक्षय जैन ने तो यहां तक कह दिया कि सचिन तेंदुलकर को ब्रांड यूएसए इन इण्डिया के खिताब से नवाजा जाए। क्रिकेट खिलाड़ियों को राष्ट्र का नायक या महानायक घोषित करना देश का अपमान है। सचिन के खाते में दो ही उपलब्धियां हैं। एक तो उसने क्रिकेट खेला और दूसरा उसने विदेशी कंपनियों के सामानों को बेचने का काम किया। 
पाठकों को यह याद होगा कि ‘भारत रत्न’ का सर्वोच्च सम्मान भारत सरकार द्वारा 1954 ईस्वी में शुरू किया गया और अगले ही वर्ष (1955) पं. नेहरु इस सम्मान से सम्मानित हो गये, जबकि सादगी की मूर्ति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद को यह सौभाग्य 1962 में प्राप्त हुआ। श्री लाल बहादुर शास्त्री को 1966 में मरणोपरान्त यह सम्मान मिला, जबकि श्रीमती इन्दिरा गांधी ने इस सम्मान को 1971 में ही प्राप्त कर लिया। डॉ. अम्बेडकर जैसे राजनीतिज्ञ अपनी मृत्यु के 34 वर्ष बाद (1990) इस सम्मान के योग्य समझे गये। जब पं. नेहरू की तीसरी पीढ़ी (श्री राजीव गांधी) भी मरणोपरान्त (1991) ‘भारत रत्न’ बन गई, तो आधुनिक भारत के चाणक्य सरदार पटेल अपनी मृत्यु के 41 वर्ष बाद इस सम्मान को पा सके।
जर्मनी और जापान के तानाशाह नायक जिसके सम्मान में झुकते थे; अंग्रेज जिसको मृत्यु (काल्पनिक) के बाद भी भयभीत होकर उसे युद्ध अपराधी घोषित कर रहे हैं; जापान, बर्मा, सिंगापुर के लोग जिसकी कुर्बानी की गाथा गाते हैं; जिसकी एक हुंकार पर भारत के लोगों ने अपने प्राणों की बाजी लगा दी। इतने पर भी वर्तमान भारत सरकार के पास जिसके योगदान का कोई रिकॉर्ड नहीं है, उस नेताजी सुभाषचन्द्रबोस को यह सम्मान 1992 ई. में दिया गया। सम्भवतः देश में सत्ता परिवर्तन के कारण ही ऐसा हुआ हो, अन्यथा सेवा की आड़ में गरीबों के धर्म का सौदा करने वाली मदर टेरेसा को भी यह सम्मान 1980 में दिया जा चुका था और मरुदुर गोपालन रामचन्द्रन जैसे फिल्मकार भी (1988) इसे प्राप्त कर चुके थे, पर भारत मां का लाडला बेटा वीर सुभाष उपेक्षित ही रहा था।
और इससे भी पीड़ादायक बात यह है कि 1857 के ‘गदर’ को ‘भारत का स्वातन्त्र्य समर सिद्ध करने वाले; अंग्रेजों की जेल (काला पानी व भारत) में लगभग 14 वर्ष व नजरबंदी में लगभग 13 वर्ष बिताने वाले वीर सावरकर आजादी के 19 वर्ष बाद तक भी जीवित रहे। उन्हें आज तक यह सम्मान नहीं मिल सका। वैसे ये लोग सब प्रकार के मान-सम्मान से ऊपर उठकर घर फूंक तमाशा देखने वाले थे। सरकार उन्हें यह सम्मान दे या न दे, पर देश की जनता के हृदय-आसन पर तो ये सदा विराजमान रहेंगे।जनता ने उन्हें उनके कर्म के अनुरूप वीर, स्वातन्त्र्य वीर कहकर अपनी श्रद्धा अर्पित की है, पर विदेशी विचारधारा का चश्मा लगाये लोगों ने उनके माफीनामे की आड़ लेकर उन्हें कायर शब्द से लांछित करने की धृष्टता की है। ‘भगतसिंह सच्चे देशभक्त थे, उनकी पृष्ठभूमि क्रान्तिकारी व आर्यसमाजी थी’-यह लिखते हुए तो इन्हें शरम आती है और भगतसिंह को नास्तिक, लेनिनवादी व मार्क्सवादी सिद्ध करने में ही अपना सारा बुद्धि कौशल दिखाते रहते हैं।
यह तो कहा जाता है कि सावरकर ने अंग्रेजों की जेल से छूटने के लिए क्षमा याचना की, तो क्या जेल से 50 साल की जेल भोगकर वे देश के लिए कुछ कर पाते ? क्या वे रिहा किये गये ? जिस माफीनामे की आड़ में सावरकर को ‘कायर’ सिद्ध किया जाता है, उसे अंग्रेजी सरकार सरासर धोखा मानती थी। ब्रिटिश होम सैक्रेटरी मेकफरसर की टिप्पणी पढ़िये -‘‘सावरकर को छोड़ना ब्रिटिश साम्राज्य के लिए खतरनाक साबित होगा। यह जेल से छूटने की उनकी चाल है। अगर वह एक बार जेल से छूट गया, तो ब्रिटिश सरकार को उखाड़ फैंकने के लिए देश-व्यापी भूमिगत आन्दोलन फिर से संगठित कर लेगा। इसका सामना कर पाना सरकार के लिए बेहद कठिन होगा। सावरकार ब्रिटिश सरकार के लिए सबसे बड़ा खतरा है।
जो लोग आज माफीनामे की आड़ में सावरकर के बलिदान को ओछा साबित करना चाहते हैं, उन्हें क्या यह याद दिलाया जाए कि लेनिन के परम मित्र एम.एन.रॉय को कानपुर षड्यंत्र केस में 12 वर्ष की कैद की सजा हुई। उनके माफीनामे पर सरकार बहादुर ने बड़ी दयालुता के साथ विचार किया और 4 साल 10 महीने 11 दिन सजा काटने के बाद उन्हें रिहाई मिल गई। आज रॉय सिर्फ सम्माननीय ही नहीं, प्रातः स्मरणीय भी हैं, क्योंकि वे महान लेनिन के प्रिय मित्र थे और भारतीय कम्युनिस्ट आन्दोलन के जनक। फिर सावरकर के विषय में यह पैमाना क्यों बदल दिया जाता है ?
(1926 ई. में नेहरु जी यूरोप में श्याम जी कृष्ण, मैडम कामा, राजा महेन्द्र प्रताप आदि से मिले, पर इनके विचार और कार्यशैली नेहरु जी को प्रभावित न कर सकी। केवल दो व्यक्तियों ने उन्हें प्रभावित किया श्री वी. चट्टापाध्याय और एम.एन. राय। ये दोनों कम्युनिस्ट थे। इनको देशभक्ति की बात पसन्द ही नहीं थी।)
नेहरु जी की जेल डायरी को अनोखी कीर्ति के रूप में पेश करने वालों को यह भी सोचना चाहिए कि अंग्रेजों ने सावरकर को अपनी कवितायें लिखने के लिये कलम और कागज तक नहीं दिया था। उन्होंने काल कोठरी पर कील आदि की सहायता से अपनी कवितायें लिखकर कण्ठस्थ की थी।
इन्हें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि जिस अंग्रेज हुकूमत ने सावरकर के बड़े भाई की पत्नी के मर जाने के बाद भी सावरकर और उनके भाई को (दोनों कालापानी में थे) घर जाने की अनुमति नहीं दी थी, उसी हुकूमत ने कमला नेहरु के बीमार पड़ने के बाद जवाहर लाल नेहरु को सजा पूरी होने से पहले सिर्फ छोड़ ही नहीं दिया था, बल्कि उनका इलाज करवाने के लिए विदेश जाने की अनुमति भी दी थी।
इन्हें यह भी याद होगा कि आजादी मिलने से पूर्व ही अंग्रजों के साथ कार और हैलिकॉप्टर में कौन घूमते थे; लेडी माउण्टबैटन के साथ किसके आन्तरिक सम्बन्ध थे (लेडी की बेटी पामेला एण्डरसन ने ‘इंडिया रिमेम्बर्ड’ में विस्तार से लिखा है); नेता सुभाष के विरुद्ध तलवार उठाने की घोषणा किसने की थी; अमरिकी राजदूत जॉन केनेथ गलबर्थ को किसने बड़ी शान से कहा था-‘भारत पर शासन करने वाला मैं अंतिम अंग्रेज हूँ। ऐतिहासिक मन्दिर सोमनाथ के पुनर्निमाण से कौन परेशान होकर राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद को वहाँ जाने से रोकता रहा; किसने गोरक्षा के विरुद्ध प्रधानमंत्री पद से त्यागपत्र देने की धमकी दे दी थी; किसने सरदार पटेल को यह कहकर कश्मीर-समस्या को भारत के शरीर का नासूर बना दिया-‘‘मैंने सारी अन्य रियासतों के मामले में आपके समक्ष टाँग नहीं अड़ाई, तो आप इस मामले में दखल न दें। भारत के हितों का ध्यान मुझे आपसे कम नहीं, शायद ज्यादा है।’’ क्या यहाँ देशभक्ति और वीरता का पैमाना दूसरा है ?
राजनीति में युद्ध और सन्धि समयानुसार होते ही रहते हैं। महात्मा गांधी ने भी अंग्रेजों के साथ कई बार समझौते किये और अपने साथी कैदियों को छुड़ावाया। अंग्रेजों को कमजोर होता देखते ही सत्याग्रह बन्द भी कर दिये। गांधी-इरविन समझौता इतिहास प्रसिद्ध है। 23 दिसम्बर 1929 के दिन जब क्रांतिकारियों ने वायसराय इरविन की स्पेशल ट्रेन को दिल्ली के पास उड़ाने की चेष्टा की, तो गांधी जी ने ईश्वर की दया से वायसराय की जीवन रक्षा पर उन्हें बधाई सन्देश भेजा था।
जलियांवाला काण्ड के बाद (1919 ई.) अमृतसर कांग्रेस अधिवेशन में जब एक तरफ लोकमान्य तिलक ने ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध निन्दा का प्रस्ताव रखा, तो गांधी जी ने न केवल उस प्रस्ताव का विरोध किया, वरन् यहाँ तक धमकी दी कि अगर इस अधिवेशन में अंग्रेज सरकार को धन्यवाद देने का प्रस्ताव पारित न किया गया तो मैं अधिवेशन छोड़कर चला जाऊँगा।
क्या वीर सावरकर का कृत्य इतना ही घृणित था ? गांधी जी के राजनैतिक मंच पर आने से पहले ही 13 वर्षीय बालक विनायक दामोदर सावरकर चापेकर बंधुओं के बलिदान पर स्वतंत्रता के लिए लड़ने की प्रतिज्ञा (1897 ई.) करता है; 1905 ई. में विदेशी वस्त्रों की होली जलाता है; लगभग 23 वर्षीय वीर लन्दन में बैठकर ‘1857 के गदर’ को ‘स्वातन्त्र्य समर’ सिद्धकर 1907 ई. में 1857 की पचासवीं वर्षगांठ मनाता है; मदन लाल धींगड़ा को प्रेरणा देकर भारत के अपमान का बदला लेता है और बंदी होते हुए भी जहाज से समुद्र में कूदकर विश्व-प्रसिद्ध ख्याति पाता है। 50 वर्ष की कारावास की सजा पाकर अण्डमान (काला पानी) पहँुच जाता है (4 जुलाई 1911 ई.)
अद्भुत प्रतिभा के धनी इस वीर की पुस्तक प्रकाशन से पूर्व ही प्रतिबन्धित (1909 ई.) होने का गौरव प्राप्त हुआ, फिर भी इसके प्रथम खुले प्रकाशन (1947 ई.) तक कितने ही गुप्त संस्करण अनेक भाषाओं में छपकर देश-विदेश में वितरित होते रहे। स्वतंत्रता के दीवानों के लिए ‘गीता’ बन गई। वीर भगतसिंह ने चुपके-चुपके इसका अंग्रजी अनुवाद छपवाया। आजाद हिन्द फौज के सिपाहियांे को भी यह पुस्तक पढ़ने के लिए दी जाती थी। नेताजी के सहयोग से इसका तमिल संस्करण भी छपा था। यदि वीर सावरकर ने केवल यह इतिहास (1857 का स्वातन्त्र्य समर) ही लिखा होता, तो उनकी कीर्ति के लिये वही पर्याप्त था, पर यहाँ तो तीनों भाई देशहित जेल की तीर्थयात्रा कर रहे थे।
29 जून 1940 को नेता जी सुभाष वीर सावरकर से मिलने सावरकर सदन (मुम्बई) में आये। यह भेंट गुप्त रूप से हुई थी। उसी के परिणामस्वरूप नेताजी 16 जनवरी 1941 को देश छोड़कर निकल पड़े। 25 जून 1944 को ी इंडिया रेडियो सिंगापुर से दिये अपने आखिरी भाषण में सावरकर जी की प्रशंसा करते हुए नेताजी ने कहा-
‘‘जब दूरदृष्टि के अभाव में कांग्रेस के अधिकतर नेता भारतीय सैनिकों को भाड़े के टट्टू कहकर उनकी बुराई कर रहे थे, यह देखकर प्रसन्नता और संताष होता है कि केवल वीर सावरकर की निर्भीकतापूर्वक भारतीय युवकों को सेना में भर्ती होने के लिए कह रहे हैं। आज वही युवक हमारी इंडियन नेशनल आर्मी (आई. एन. ए.) को प्रशिक्षित सैनिकों के रूप में मिल रहे हैं’’
जब वीर सावरकर कोहमरी में पधारे तो आर्य समाज के महान योगी स्वामी आत्मानन्द जी ने विचारा-‘‘वीर सावरकर ने अपने राष्ट्र के लिये वह कर्तव्य निभाया है, जिसका स्मरण करते ही मानव नतमस्तक हो जाता है।’’ यह विचारकर वे अपने विद्यार्थियों सहित वीर सावरकर के सम्मान के लिये खड़े हो गये। उनके आने पर स्वामी जी ने वीर शिरोमणि को पुष्पमाला पहनाकर अपनी श्रद्धा अर्पित की और चरण स्पर्श किये।
प्रिय पाठकवृन्द! स्मान उद्देश्य (आजादी) होते हुए भी साधन की भिन्नता होने से ही वीर सावरकर से देश के सरकारी मान्यता प्राप्त महान नेता घृणा ही करते रहे। (वैसे प्रत्येक क्रांतिकारी वीर इनकी घृणा का पात्र रहा है) काला पानी में 10 वर्ष की भयंकर यातना झेलकर रत्नागिरि जेल में स्थानान्तरित हुए वीर सावरकर की रिहाई के लिए प्रयासरत लोग जब गांधी जी के पास हस्ताक्षर करवाने पहुँचे, तो वे बोले- ‘मैं नहीं जानता वह कौन सा सावरकर है। फिर पूछा- क्या यह वही सावरकर है, जिसने ‘दि इण्डियन वार ऑफ इंडिपैंडेस 1857’ लिखी है ? ........ सावरकर की मुक्ति देश के हित में नहीं है।
1937 में सावरकर की रत्नागिरि जिले की स्थान-बद्धता से मुक्ति का भाई परमानन्द, नेताजी सुभाष, डॉ. मुंजे, एन. सी. केलकर, अणे जैसे महान नेताओं ने स्वागत किया, पर गांधी व गांधीवादी मौन रहे। इतना ही नहीं, उन्होंने सावरकर के स्वागत समारोहों का बहिष्कार किया, उन्हें काले झण्डे दिखाये गये।
मार्च 1945 में वीर सावरकर के बड़े भाई गणेश सावरकर की मृत्यु पर देश-विदेश से सहानुभूति भरे पत्र व तार आये, पर हैदराबाद के निजाम उस्मान अली की माँ की मृत्यु पर सान्त्वना तार भेजने वाले गांधी जी की सहानुभूति की स्याही सावरकर के प्रति सूख गई थी। (इसी निजाम के विरुद्ध सत्याग्रह में आर्यसमाज के 27 वीर शहीद हुए थे और 1947 में सरदार पटेल को पुलिस एक्शन करना पड़ा था)
30 जनवरी 1948 को गांधी जी को गोली लगी, तो सावरकर सदन पर हमला कर गुण्डों ने वीर सावरकर के छोटे भाई नारायण सावरकर को घायल कर दिया। जिसके कारण अस्वस्थ रहकर 19 अक्तूबर 1949 को वे स्वर्गवासी हो गये। इधर 67 वर्षीय वीर सावरकर को हत्या षड्यंत्र का आरोप लगाकर रोग की अवस्था में ही बन्दी बना लिया। इस पर वीर सावरकर ने कहा- मेरे गांधी जी के साथ वैचारिक मतभेद अवश्व थे परन्तु पतन की यह सीमा नहीं हो सकती कि मैं किसी की हत्या कर दूँ। सावरकर को लाल किले में कैद कर लिया गया। 10 फरवरी 1949 को हत्याकाण्ड के विशेष न्यायाधीश जस्टिस आत्माचरण ने निर्णय दिया- ’’सावरकर ने देश के लिए बहुत कुछ भुगता। इस बात की जांच होनी चाहिए कि ऐसे महान नेता का नाम इस हत्याकाण्ड में क्यों घसीटा गया ?’’ सरकार को तो पहले ही अहसास था, अतः उनके बाइज्जत बरी हो जाने के बाद भी सरकार ने इस फैसले को उच्च न्यायालय में कोई चुनौती नहीं दी। और सावरकर ने भी देशहित को देखते हुए सरकार पर मानहानि का दावा नहीं किया।
रिहाई के दिन हिन्दू महासभा की ओर से लाल किले से वीर सावरकर की शोभा यात्रा निकालने का प्रबन्ध किया जाने लगा, तो केन्द्र सरकार के सर्वेसर्वा की इच्छानुसार दिल्ली के मजिस्ट्रेट ने सावरकर के लाल किले से बाहर जाने पर प्रतिबन्ध लगा दिया। साथ ही तीन मास तक उनके दिल्ली प्रवेश तथा निवास पर प्रतिबन्ध लगाकर पुलिस की गाड़ी से रेलगाड़ी में बैठाकर मुम्बई भेज दिया।
वीर सावरकर ने हिंसक मुस्लिम मनोवृत्ति की निन्दा की, तो पाकिस्तान के प्रधानमंत्री लियाकत अली नाराज हो गये। अप्रैल 1950 में लियाकत अली को नेहरू जी ने दिल्ली आमंत्रित किया, तो उसे प्रसन्न करने के लिए 4 अप्रैल 1950 को वीर सावरकर सहित हिन्दू महासभा के अनेक नेताओं को बन्दी बना लिया। 13 जुलाई 1950 को उन्हें इस शर्त पर रिहा किया गया कि वे एक वर्ष तक राजनीति में भाग नहीं लेंगे और अपने घर पर ही रहेंगे। 1962 में नेहरू जी के प्रिय भाई चीन ने भारत पर आक्रमण किया, तो प्रधानमंत्री ने तुरन्त ‘सावरकर सदन’ का पहरा कड़ा कर दिया। दो की जगह चार गुप्तचर लगा दिये। सावरकर जी के सारे पत्र जांचे जाने लगे। मानो हमला चीन न नहीं सावरकर सदन ने किया हो।
ऐसे में ‘भारत रत्न’ तो क्या नेहरू जी के जीते जी वीर सावरकर को स्वतंत्रता सेनानी भी नहीं माना गया। श्री लाल बहादुर शास्त्री जी ने अक्तूबर 1964 से सावरकर जी को तीन सौ रु. मासिक का मानधन देकर राष्ट्र के कृतघ्नता के कलंक को धोने का प्रयास किया। 26 फरवरी 1966 को देश के लिये अपने व बेगानों से अपमान के घूंट पीकर माँ का लाड़ला बेटा सदा के लिए सो गया। पर सरकार से विनती करने पर भी शव को श्मशान तक ले जाने के सैनिक गाड़ी नहीं मिली और चन्दन बाड़ी की श्मशान भूमि में उस दिवंगत वीर को श्रद्धांजलि अर्पित करने के लिए प्रान्तीय सरकार का एक भी मंत्री उपस्थित नहीं था। इसे कृतघ्नता की पराकाष्ठा ही कहना चाहिए।
स्ंसार से चले जाने के बाद भी उस महावीरके इतिहास को विस्मृति के गड्ढे में दबाने का प्रयास जारी रहा। राष्ट्रपति के आर नारायणन के काल में राष्ट्रभक्ति की भावना से सत्ता पक्ष ने वीर सावरकर को ‘भारत रत्न’ से नवाजने का प्रस्ताव भेजा था, मगर राष्ट्रपति इसे दबाकर बैठ गये। जब सादगी व शालीनता की मूर्ति, महान व्यक्तित्व के धनी, भारत के महान वैज्ञानिक डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम देश के राष्ट्रपति (2002) बने, तो सत्ता पक्ष ने संसद के केन्द्रीय कक्ष में वीर सावरकर का तैलचित्र लगाने का विचार किया और राष्ट्रपति द्वारा उसके अनावरण करने की घोषणा हुई तो सावरकर विरोधी समस्त विपक्ष दल में सनसनी फैल गई। सबने वीर सावरकर के विरोध में लिखा। सावरकर को कायर सिद्ध करने के लिये नये-नये शोधकर्ता लेखक तैयार हो गये। कुछ कुख्यात वामपंथी इतिहासकारों ने सावरकर द्वारा अंग्रेजों से माफी मांगने के विषय में नयी खोज ? तब (2003) से सात वर्ष पूर्व की थी, पर उस तथाकथित याचिका की प्रमाणिकता संदिग्ध है।
राष्ट्रपति जी को भी पत्र लिखकर कार्यक्रम में भाग न लेने का अनुरोध किया गया। (ऐसे लोग अब देश के सर्वेसर्वा हैं) पर राष्ट्रपति जी ने सूझबूझ से काम लिया। वे समारोह में शामिल ही नहीं हुए, अपितु उन्होंने वीर सावरकर के तैलचित्र का अनावरण भी किया, पर विरोधी इसे सहन नहीं कर पाये। पुनः सत्ता में आते ही वही घिनौना खेल शुरू हो गया। वर्षों से नोटो पर गांधी जी के फोटो छपते रहे, तो किसी को कोई आपत्ति नहीं, पर सावरकर का तो कहीं नाम भी नहीं रहना चाहिये, इसीलिए पोर्टब्लेयर में वीर सावरकर हवाई अड्डे का नाम भी बदल दिया।
15 अगस्त 2004 को पर्यटन पर निकले केन्द्रीय पैट्रोलियम मंत्री मणिशंकर अय्यर अंडमान की राजधानी पोर्टब्लेयर की ऐतिहासिक जेल सेलुलर में पहुंचे, जो दो जन्मों का आजीवन कारावास की सजा पाये वीर सावरकर की पर्याय बन चुकी है। वहां वीर सावरकर के नाम की पट्टिका लगी हुई थी, जिस पर उस महावीर के ऐतिहासिक शब्द लिखे हुए थे-
वन्दे मातरम्
‘देशभक्ति का यह व्रत हमने आँख मूँद कर नहीं लिया है। इतिहास की प्रखर ज्योति में हमने इस मार्ग की परख की है। दृढ़ प्रतिज्ञ होकर दिव्य अग्नि में जलने का निश्चय जान-बूझकर किया है। हमने व्रत लिया है- आत्म बलिदान का
वीर सावरकर
केन्द्रीय मंत्री जी ने स्वतंत्रता के दिन देशवासियों को यह तोहफा दिया कि उस पट्टिका को हटाकर गांधी जी के नाम की पट्टिका लगवा दी, जबकि गांधी जी का सेलुलर जेल से कोई वास्ता नहीं था, उन्होंने कभी उस जेल के दर्शन भी नहीं किये थे और मंत्री जी भी वहां पिकनिक मनाने गये थे, उन्हें वीर सावरकर की कुर्बानी का अहसास तो तब होता, यदि वीर सावरकर की तरह बंदी बनाकर ले जाये जाते और उस नरक में दस-पांच वर्ष बिताते। एयर कंडीशनर कमरों में बैठकर विलासी जीवन जीने वाले लोग देशभक्तों की पीड़ा को क्या समझें ? कविवर हरिओम पंवार के शब्दों में कहूँ तो-
आजादी लाने वालों का तिरस्कार तड़पाता है। 
बलिदानी पत्थर पर थूका बार-बार तड़पाता है।
इंकलाब की बलिवेदी भी जिससे गौरव पाती है।
आजादी में उस शेखर को भी गाली दी जाती है।
जिन बेटों ने धरती माता पर कुर्बानी दे डाली।
आजादी के हवन कुण्ड के लिये जवानी दे डाली।
वे देवों की लोकसभा के अंग बने बैठे होंगे।
वे सतरंगी इन्द्रधनुष के रंग बने बैठे होंगे।
उन बेटों की याद भुलाने की नादानी करते हो,
इन्द्रधनुष के रंग चुराने की नादानी करते हो।
राजेशार्य 'रत्नेश'