हा! बलिदान का यह पुरस्कार
प्रिय पाठकवृन्द ! जून महीने की समाप्ति पर समाचार पत्रों में एक आश्चर्यजनक समाचार छपा आरटीआई कार्यकर्ता मनोरंजन राय ने केन्द्रीय गृहमन्त्रालय से पूछा कि हमारे देश का क्या नाम है- इण्डिया, भारत या हिन्दुस्तान ? और हमारे देश की राष्ट्रीय भाषा क्या है? अधिकारी देश के नाम को स्पष्ट नहीं कर पाये और भाषा के विषय में कहा कि हमारे देश के संविधान में राष्ट्रीय भाषा के तौर पर किसी भाषा का उल्लेख नहीं है।
इससे कई वर्ष पूर्व भी ऐसा ही उत्तर मिला था जिसमें कहा गया था कि नेता जी सुभाष चन्द्र बोस का स्वतंत्रता प्राप्ति में क्या योगदान था, इसका कोई रिकॉर्ड भारत सरकार के पास नहीं है अर्थात् हम केवल 50-60 वर्षों में ही इतने स्वच्छन्द कृतघ्न और संवेदनहीन हो गये कि अपने पूर्वजों के बलिदान, राष्ट्र व राष्ट्रभाषा का नाम तक भूल गये। हमारी अवस्था कटी डोर वाली पतंग जैसी हो गई है, जिसके पतन की कोई सीमा निश्चित नहीं होती।
कुछ मास पूर्व क्रिकेट में भारत की शानदार विजय दिलाने वाले खिलाड़ी सचिन तेंदुलकर को समाचारपत्रों ने ब्राण्ड इण्डिया खिलाड़ी कहा और टेलीविजन वालों ने इसे ‘भारत का एकमात्र गौरव’ कहा। वास्तविकता तो यह है कि क्रिकेट खेल नहीं, व्यापार है। बहुराष्ट्रीय कम्पनियां स्पान्सर नहीं करें तो क्रिकेट का खेल नहीं हो सकता और यह भी सत्य है कि सचिन ने खेल पैसे के लिए ही खेला है, जिससे देश की गरीब जनता को कोई लाभ नहीं हुआ। फिर भी कुछ भोले लोग सचिन को ‘भारत रत्न’ देने की जोरदार सिफारिश कर रहे हैं।
क्या ऐसे लोगों ने कभी उनके लिये भी ‘भारत रत्न’ का सम्मान दिलाने की सोची-जिस सैनिक ने पहाड़ की बर्फीली चोटी पर रात को जागते हुए (ताकि हम आराम से सो सकें) अपने प्राणों की आहुति दे दी, जिस दशरथ मांझी ने 8 वर्षों की अपनी कड़ी मेहनत से पहाड़ काटकर 80 मील के रास्ते को 13 मील में बदल दिया, जिस गरीब मैकेनिक निरंजन सामल (ओड़िशा) ने पेड़ लगाने को जीवन का लक्ष्य बनाकर एक पूरा जंगल बना डाला ? क्या इन्होंने कभी मंगल पाण्डे, भगतसिंह, चन्द्रशेखर आजाद जैसे बलिदानियों को ‘भारत रत्न’ देने की सिफारिश की ? शायद ये वीर इनकी नजरों में आतंकवादी हैं, स्वामी दयानन्द साम्प्रदायिक हैं, वीर सावरकर कायर हैं।
यदि वास्तव में सचिन को ‘भारत रत्न’ दिया जाता है तो यह कैसा विचित्र लगेगा कि भारत का ‘भारत रत्न’ विदेशी (अमेरिका) कम्पनियों के कोक, पेप्सी बेचता हुआ नजर आएगा। मोबाइल फोन और इंजन ऑयल के सेल्समैन के रूप में हर मिनट टी.वी. पर दिखलाई पडे़गा। अक्षय जैन ने तो यहां तक कह दिया कि सचिन तेंदुलकर को ब्रांड यूएसए इन इण्डिया के खिताब से नवाजा जाए। क्रिकेट खिलाड़ियों को राष्ट्र का नायक या महानायक घोषित करना देश का अपमान है। सचिन के खाते में दो ही उपलब्धियां हैं। एक तो उसने क्रिकेट खेला और दूसरा उसने विदेशी कंपनियों के सामानों को बेचने का काम किया।
पाठकों को यह याद होगा कि ‘भारत रत्न’ का सर्वोच्च सम्मान भारत सरकार द्वारा 1954 ईस्वी में शुरू किया गया और अगले ही वर्ष (1955) पं. नेहरु इस सम्मान से सम्मानित हो गये, जबकि सादगी की मूर्ति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद को यह सौभाग्य 1962 में प्राप्त हुआ। श्री लाल बहादुर शास्त्री को 1966 में मरणोपरान्त यह सम्मान मिला, जबकि श्रीमती इन्दिरा गांधी ने इस सम्मान को 1971 में ही प्राप्त कर लिया। डॉ. अम्बेडकर जैसे राजनीतिज्ञ अपनी मृत्यु के 34 वर्ष बाद (1990) इस सम्मान के योग्य समझे गये। जब पं. नेहरू की तीसरी पीढ़ी (श्री राजीव गांधी) भी मरणोपरान्त (1991) ‘भारत रत्न’ बन गई, तो आधुनिक भारत के चाणक्य सरदार पटेल अपनी मृत्यु के 41 वर्ष बाद इस सम्मान को पा सके।
जर्मनी और जापान के तानाशाह नायक जिसके सम्मान में झुकते थे; अंग्रेज जिसको मृत्यु (काल्पनिक) के बाद भी भयभीत होकर उसे युद्ध अपराधी घोषित कर रहे हैं; जापान, बर्मा, सिंगापुर के लोग जिसकी कुर्बानी की गाथा गाते हैं; जिसकी एक हुंकार पर भारत के लोगों ने अपने प्राणों की बाजी लगा दी। इतने पर भी वर्तमान भारत सरकार के पास जिसके योगदान का कोई रिकॉर्ड नहीं है, उस नेताजी सुभाषचन्द्रबोस को यह सम्मान 1992 ई. में दिया गया। सम्भवतः देश में सत्ता परिवर्तन के कारण ही ऐसा हुआ हो, अन्यथा सेवा की आड़ में गरीबों के धर्म का सौदा करने वाली मदर टेरेसा को भी यह सम्मान 1980 में दिया जा चुका था और मरुदुर गोपालन रामचन्द्रन जैसे फिल्मकार भी (1988) इसे प्राप्त कर चुके थे, पर भारत मां का लाडला बेटा वीर सुभाष उपेक्षित ही रहा था।
और इससे भी पीड़ादायक बात यह है कि 1857 के ‘गदर’ को ‘भारत का स्वातन्त्र्य समर सिद्ध करने वाले; अंग्रेजों की जेल (काला पानी व भारत) में लगभग 14 वर्ष व नजरबंदी में लगभग 13 वर्ष बिताने वाले वीर सावरकर आजादी के 19 वर्ष बाद तक भी जीवित रहे। उन्हें आज तक यह सम्मान नहीं मिल सका। वैसे ये लोग सब प्रकार के मान-सम्मान से ऊपर उठकर घर फूंक तमाशा देखने वाले थे। सरकार उन्हें यह सम्मान दे या न दे, पर देश की जनता के हृदय-आसन पर तो ये सदा विराजमान रहेंगे।जनता ने उन्हें उनके कर्म के अनुरूप वीर, स्वातन्त्र्य वीर कहकर अपनी श्रद्धा अर्पित की है, पर विदेशी विचारधारा का चश्मा लगाये लोगों ने उनके माफीनामे की आड़ लेकर उन्हें कायर शब्द से लांछित करने की धृष्टता की है। ‘भगतसिंह सच्चे देशभक्त थे, उनकी पृष्ठभूमि क्रान्तिकारी व आर्यसमाजी थी’-यह लिखते हुए तो इन्हें शरम आती है और भगतसिंह को नास्तिक, लेनिनवादी व मार्क्सवादी सिद्ध करने में ही अपना सारा बुद्धि कौशल दिखाते रहते हैं।
यह तो कहा जाता है कि सावरकर ने अंग्रेजों की जेल से छूटने के लिए क्षमा याचना की, तो क्या जेल से 50 साल की जेल भोगकर वे देश के लिए कुछ कर पाते ? क्या वे रिहा किये गये ? जिस माफीनामे की आड़ में सावरकर को ‘कायर’ सिद्ध किया जाता है, उसे अंग्रेजी सरकार सरासर धोखा मानती थी। ब्रिटिश होम सैक्रेटरी मेकफरसर की टिप्पणी पढ़िये -‘‘सावरकर को छोड़ना ब्रिटिश साम्राज्य के लिए खतरनाक साबित होगा। यह जेल से छूटने की उनकी चाल है। अगर वह एक बार जेल से छूट गया, तो ब्रिटिश सरकार को उखाड़ फैंकने के लिए देश-व्यापी भूमिगत आन्दोलन फिर से संगठित कर लेगा। इसका सामना कर पाना सरकार के लिए बेहद कठिन होगा। सावरकार ब्रिटिश सरकार के लिए सबसे बड़ा खतरा है।
जो लोग आज माफीनामे की आड़ में सावरकर के बलिदान को ओछा साबित करना चाहते हैं, उन्हें क्या यह याद दिलाया जाए कि लेनिन के परम मित्र एम.एन.रॉय को कानपुर षड्यंत्र केस में 12 वर्ष की कैद की सजा हुई। उनके माफीनामे पर सरकार बहादुर ने बड़ी दयालुता के साथ विचार किया और 4 साल 10 महीने 11 दिन सजा काटने के बाद उन्हें रिहाई मिल गई। आज रॉय सिर्फ सम्माननीय ही नहीं, प्रातः स्मरणीय भी हैं, क्योंकि वे महान लेनिन के प्रिय मित्र थे और भारतीय कम्युनिस्ट आन्दोलन के जनक। फिर सावरकर के विषय में यह पैमाना क्यों बदल दिया जाता है ?
(1926 ई. में नेहरु जी यूरोप में श्याम जी कृष्ण, मैडम कामा, राजा महेन्द्र प्रताप आदि से मिले, पर इनके विचार और कार्यशैली नेहरु जी को प्रभावित न कर सकी। केवल दो व्यक्तियों ने उन्हें प्रभावित किया श्री वी. चट्टापाध्याय और एम.एन. राय। ये दोनों कम्युनिस्ट थे। इनको देशभक्ति की बात पसन्द ही नहीं थी।)
नेहरु जी की जेल डायरी को अनोखी कीर्ति के रूप में पेश करने वालों को यह भी सोचना चाहिए कि अंग्रेजों ने सावरकर को अपनी कवितायें लिखने के लिये कलम और कागज तक नहीं दिया था। उन्होंने काल कोठरी पर कील आदि की सहायता से अपनी कवितायें लिखकर कण्ठस्थ की थी।
इन्हें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि जिस अंग्रेज हुकूमत ने सावरकर के बड़े भाई की पत्नी के मर जाने के बाद भी सावरकर और उनके भाई को (दोनों कालापानी में थे) घर जाने की अनुमति नहीं दी थी, उसी हुकूमत ने कमला नेहरु के बीमार पड़ने के बाद जवाहर लाल नेहरु को सजा पूरी होने से पहले सिर्फ छोड़ ही नहीं दिया था, बल्कि उनका इलाज करवाने के लिए विदेश जाने की अनुमति भी दी थी।
इन्हें यह भी याद होगा कि आजादी मिलने से पूर्व ही अंग्रजों के साथ कार और हैलिकॉप्टर में कौन घूमते थे; लेडी माउण्टबैटन के साथ किसके आन्तरिक सम्बन्ध थे (लेडी की बेटी पामेला एण्डरसन ने ‘इंडिया रिमेम्बर्ड’ में विस्तार से लिखा है); नेता सुभाष के विरुद्ध तलवार उठाने की घोषणा किसने की थी; अमरिकी राजदूत जॉन केनेथ गलबर्थ को किसने बड़ी शान से कहा था-‘भारत पर शासन करने वाला मैं अंतिम अंग्रेज हूँ। ऐतिहासिक मन्दिर सोमनाथ के पुनर्निमाण से कौन परेशान होकर राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद को वहाँ जाने से रोकता रहा; किसने गोरक्षा के विरुद्ध प्रधानमंत्री पद से त्यागपत्र देने की धमकी दे दी थी; किसने सरदार पटेल को यह कहकर कश्मीर-समस्या को भारत के शरीर का नासूर बना दिया-‘‘मैंने सारी अन्य रियासतों के मामले में आपके समक्ष टाँग नहीं अड़ाई, तो आप इस मामले में दखल न दें। भारत के हितों का ध्यान मुझे आपसे कम नहीं, शायद ज्यादा है।’’ क्या यहाँ देशभक्ति और वीरता का पैमाना दूसरा है ?
राजनीति में युद्ध और सन्धि समयानुसार होते ही रहते हैं। महात्मा गांधी ने भी अंग्रेजों के साथ कई बार समझौते किये और अपने साथी कैदियों को छुड़ावाया। अंग्रेजों को कमजोर होता देखते ही सत्याग्रह बन्द भी कर दिये। गांधी-इरविन समझौता इतिहास प्रसिद्ध है। 23 दिसम्बर 1929 के दिन जब क्रांतिकारियों ने वायसराय इरविन की स्पेशल ट्रेन को दिल्ली के पास उड़ाने की चेष्टा की, तो गांधी जी ने ईश्वर की दया से वायसराय की जीवन रक्षा पर उन्हें बधाई सन्देश भेजा था।
जलियांवाला काण्ड के बाद (1919 ई.) अमृतसर कांग्रेस अधिवेशन में जब एक तरफ लोकमान्य तिलक ने ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध निन्दा का प्रस्ताव रखा, तो गांधी जी ने न केवल उस प्रस्ताव का विरोध किया, वरन् यहाँ तक धमकी दी कि अगर इस अधिवेशन में अंग्रेज सरकार को धन्यवाद देने का प्रस्ताव पारित न किया गया तो मैं अधिवेशन छोड़कर चला जाऊँगा।
क्या वीर सावरकर का कृत्य इतना ही घृणित था ? गांधी जी के राजनैतिक मंच पर आने से पहले ही 13 वर्षीय बालक विनायक दामोदर सावरकर चापेकर बंधुओं के बलिदान पर स्वतंत्रता के लिए लड़ने की प्रतिज्ञा (1897 ई.) करता है; 1905 ई. में विदेशी वस्त्रों की होली जलाता है; लगभग 23 वर्षीय वीर लन्दन में बैठकर ‘1857 के गदर’ को ‘स्वातन्त्र्य समर’ सिद्धकर 1907 ई. में 1857 की पचासवीं वर्षगांठ मनाता है; मदन लाल धींगड़ा को प्रेरणा देकर भारत के अपमान का बदला लेता है और बंदी होते हुए भी जहाज से समुद्र में कूदकर विश्व-प्रसिद्ध ख्याति पाता है। 50 वर्ष की कारावास की सजा पाकर अण्डमान (काला पानी) पहँुच जाता है (4 जुलाई 1911 ई.)
अद्भुत प्रतिभा के धनी इस वीर की पुस्तक प्रकाशन से पूर्व ही प्रतिबन्धित (1909 ई.) होने का गौरव प्राप्त हुआ, फिर भी इसके प्रथम खुले प्रकाशन (1947 ई.) तक कितने ही गुप्त संस्करण अनेक भाषाओं में छपकर देश-विदेश में वितरित होते रहे। स्वतंत्रता के दीवानों के लिए ‘गीता’ बन गई। वीर भगतसिंह ने चुपके-चुपके इसका अंग्रजी अनुवाद छपवाया। आजाद हिन्द फौज के सिपाहियांे को भी यह पुस्तक पढ़ने के लिए दी जाती थी। नेताजी के सहयोग से इसका तमिल संस्करण भी छपा था। यदि वीर सावरकर ने केवल यह इतिहास (1857 का स्वातन्त्र्य समर) ही लिखा होता, तो उनकी कीर्ति के लिये वही पर्याप्त था, पर यहाँ तो तीनों भाई देशहित जेल की तीर्थयात्रा कर रहे थे।
29 जून 1940 को नेता जी सुभाष वीर सावरकर से मिलने सावरकर सदन (मुम्बई) में आये। यह भेंट गुप्त रूप से हुई थी। उसी के परिणामस्वरूप नेताजी 16 जनवरी 1941 को देश छोड़कर निकल पड़े। 25 जून 1944 को ी इंडिया रेडियो सिंगापुर से दिये अपने आखिरी भाषण में सावरकर जी की प्रशंसा करते हुए नेताजी ने कहा-
‘‘जब दूरदृष्टि के अभाव में कांग्रेस के अधिकतर नेता भारतीय सैनिकों को भाड़े के टट्टू कहकर उनकी बुराई कर रहे थे, यह देखकर प्रसन्नता और संताष होता है कि केवल वीर सावरकर की निर्भीकतापूर्वक भारतीय युवकों को सेना में भर्ती होने के लिए कह रहे हैं। आज वही युवक हमारी इंडियन नेशनल आर्मी (आई. एन. ए.) को प्रशिक्षित सैनिकों के रूप में मिल रहे हैं’’
जब वीर सावरकर कोहमरी में पधारे तो आर्य समाज के महान योगी स्वामी आत्मानन्द जी ने विचारा-‘‘वीर सावरकर ने अपने राष्ट्र के लिये वह कर्तव्य निभाया है, जिसका स्मरण करते ही मानव नतमस्तक हो जाता है।’’ यह विचारकर वे अपने विद्यार्थियों सहित वीर सावरकर के सम्मान के लिये खड़े हो गये। उनके आने पर स्वामी जी ने वीर शिरोमणि को पुष्पमाला पहनाकर अपनी श्रद्धा अर्पित की और चरण स्पर्श किये।
प्रिय पाठकवृन्द! स्मान उद्देश्य (आजादी) होते हुए भी साधन की भिन्नता होने से ही वीर सावरकर से देश के सरकारी मान्यता प्राप्त महान नेता घृणा ही करते रहे। (वैसे प्रत्येक क्रांतिकारी वीर इनकी घृणा का पात्र रहा है) काला पानी में 10 वर्ष की भयंकर यातना झेलकर रत्नागिरि जेल में स्थानान्तरित हुए वीर सावरकर की रिहाई के लिए प्रयासरत लोग जब गांधी जी के पास हस्ताक्षर करवाने पहुँचे, तो वे बोले- ‘मैं नहीं जानता वह कौन सा सावरकर है। फिर पूछा- क्या यह वही सावरकर है, जिसने ‘दि इण्डियन वार ऑफ इंडिपैंडेस 1857’ लिखी है ? ........ सावरकर की मुक्ति देश के हित में नहीं है।
1937 में सावरकर की रत्नागिरि जिले की स्थान-बद्धता से मुक्ति का भाई परमानन्द, नेताजी सुभाष, डॉ. मुंजे, एन. सी. केलकर, अणे जैसे महान नेताओं ने स्वागत किया, पर गांधी व गांधीवादी मौन रहे। इतना ही नहीं, उन्होंने सावरकर के स्वागत समारोहों का बहिष्कार किया, उन्हें काले झण्डे दिखाये गये।
मार्च 1945 में वीर सावरकर के बड़े भाई गणेश सावरकर की मृत्यु पर देश-विदेश से सहानुभूति भरे पत्र व तार आये, पर हैदराबाद के निजाम उस्मान अली की माँ की मृत्यु पर सान्त्वना तार भेजने वाले गांधी जी की सहानुभूति की स्याही सावरकर के प्रति सूख गई थी। (इसी निजाम के विरुद्ध सत्याग्रह में आर्यसमाज के 27 वीर शहीद हुए थे और 1947 में सरदार पटेल को पुलिस एक्शन करना पड़ा था)
30 जनवरी 1948 को गांधी जी को गोली लगी, तो सावरकर सदन पर हमला कर गुण्डों ने वीर सावरकर के छोटे भाई नारायण सावरकर को घायल कर दिया। जिसके कारण अस्वस्थ रहकर 19 अक्तूबर 1949 को वे स्वर्गवासी हो गये। इधर 67 वर्षीय वीर सावरकर को हत्या षड्यंत्र का आरोप लगाकर रोग की अवस्था में ही बन्दी बना लिया। इस पर वीर सावरकर ने कहा- मेरे गांधी जी के साथ वैचारिक मतभेद अवश्व थे परन्तु पतन की यह सीमा नहीं हो सकती कि मैं किसी की हत्या कर दूँ। सावरकर को लाल किले में कैद कर लिया गया। 10 फरवरी 1949 को हत्याकाण्ड के विशेष न्यायाधीश जस्टिस आत्माचरण ने निर्णय दिया- ’’सावरकर ने देश के लिए बहुत कुछ भुगता। इस बात की जांच होनी चाहिए कि ऐसे महान नेता का नाम इस हत्याकाण्ड में क्यों घसीटा गया ?’’ सरकार को तो पहले ही अहसास था, अतः उनके बाइज्जत बरी हो जाने के बाद भी सरकार ने इस फैसले को उच्च न्यायालय में कोई चुनौती नहीं दी। और सावरकर ने भी देशहित को देखते हुए सरकार पर मानहानि का दावा नहीं किया।
रिहाई के दिन हिन्दू महासभा की ओर से लाल किले से वीर सावरकर की शोभा यात्रा निकालने का प्रबन्ध किया जाने लगा, तो केन्द्र सरकार के सर्वेसर्वा की इच्छानुसार दिल्ली के मजिस्ट्रेट ने सावरकर के लाल किले से बाहर जाने पर प्रतिबन्ध लगा दिया। साथ ही तीन मास तक उनके दिल्ली प्रवेश तथा निवास पर प्रतिबन्ध लगाकर पुलिस की गाड़ी से रेलगाड़ी में बैठाकर मुम्बई भेज दिया।
वीर सावरकर ने हिंसक मुस्लिम मनोवृत्ति की निन्दा की, तो पाकिस्तान के प्रधानमंत्री लियाकत अली नाराज हो गये। अप्रैल 1950 में लियाकत अली को नेहरू जी ने दिल्ली आमंत्रित किया, तो उसे प्रसन्न करने के लिए 4 अप्रैल 1950 को वीर सावरकर सहित हिन्दू महासभा के अनेक नेताओं को बन्दी बना लिया। 13 जुलाई 1950 को उन्हें इस शर्त पर रिहा किया गया कि वे एक वर्ष तक राजनीति में भाग नहीं लेंगे और अपने घर पर ही रहेंगे। 1962 में नेहरू जी के प्रिय भाई चीन ने भारत पर आक्रमण किया, तो प्रधानमंत्री ने तुरन्त ‘सावरकर सदन’ का पहरा कड़ा कर दिया। दो की जगह चार गुप्तचर लगा दिये। सावरकर जी के सारे पत्र जांचे जाने लगे। मानो हमला चीन न नहीं सावरकर सदन ने किया हो।
ऐसे में ‘भारत रत्न’ तो क्या नेहरू जी के जीते जी वीर सावरकर को स्वतंत्रता सेनानी भी नहीं माना गया। श्री लाल बहादुर शास्त्री जी ने अक्तूबर 1964 से सावरकर जी को तीन सौ रु. मासिक का मानधन देकर राष्ट्र के कृतघ्नता के कलंक को धोने का प्रयास किया। 26 फरवरी 1966 को देश के लिये अपने व बेगानों से अपमान के घूंट पीकर माँ का लाड़ला बेटा सदा के लिए सो गया। पर सरकार से विनती करने पर भी शव को श्मशान तक ले जाने के सैनिक गाड़ी नहीं मिली और चन्दन बाड़ी की श्मशान भूमि में उस दिवंगत वीर को श्रद्धांजलि अर्पित करने के लिए प्रान्तीय सरकार का एक भी मंत्री उपस्थित नहीं था। इसे कृतघ्नता की पराकाष्ठा ही कहना चाहिए।
स्ंसार से चले जाने के बाद भी उस महावीरके इतिहास को विस्मृति के गड्ढे में दबाने का प्रयास जारी रहा। राष्ट्रपति के आर नारायणन के काल में राष्ट्रभक्ति की भावना से सत्ता पक्ष ने वीर सावरकर को ‘भारत रत्न’ से नवाजने का प्रस्ताव भेजा था, मगर राष्ट्रपति इसे दबाकर बैठ गये। जब सादगी व शालीनता की मूर्ति, महान व्यक्तित्व के धनी, भारत के महान वैज्ञानिक डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम देश के राष्ट्रपति (2002) बने, तो सत्ता पक्ष ने संसद के केन्द्रीय कक्ष में वीर सावरकर का तैलचित्र लगाने का विचार किया और राष्ट्रपति द्वारा उसके अनावरण करने की घोषणा हुई तो सावरकर विरोधी समस्त विपक्ष दल में सनसनी फैल गई। सबने वीर सावरकर के विरोध में लिखा। सावरकर को कायर सिद्ध करने के लिये नये-नये शोधकर्ता लेखक तैयार हो गये। कुछ कुख्यात वामपंथी इतिहासकारों ने सावरकर द्वारा अंग्रेजों से माफी मांगने के विषय में नयी खोज ? तब (2003) से सात वर्ष पूर्व की थी, पर उस तथाकथित याचिका की प्रमाणिकता संदिग्ध है।
राष्ट्रपति जी को भी पत्र लिखकर कार्यक्रम में भाग न लेने का अनुरोध किया गया। (ऐसे लोग अब देश के सर्वेसर्वा हैं) पर राष्ट्रपति जी ने सूझबूझ से काम लिया। वे समारोह में शामिल ही नहीं हुए, अपितु उन्होंने वीर सावरकर के तैलचित्र का अनावरण भी किया, पर विरोधी इसे सहन नहीं कर पाये। पुनः सत्ता में आते ही वही घिनौना खेल शुरू हो गया। वर्षों से नोटो पर गांधी जी के फोटो छपते रहे, तो किसी को कोई आपत्ति नहीं, पर सावरकर का तो कहीं नाम भी नहीं रहना चाहिये, इसीलिए पोर्टब्लेयर में वीर सावरकर हवाई अड्डे का नाम भी बदल दिया।
15 अगस्त 2004 को पर्यटन पर निकले केन्द्रीय पैट्रोलियम मंत्री मणिशंकर अय्यर अंडमान की राजधानी पोर्टब्लेयर की ऐतिहासिक जेल सेलुलर में पहुंचे, जो दो जन्मों का आजीवन कारावास की सजा पाये वीर सावरकर की पर्याय बन चुकी है। वहां वीर सावरकर के नाम की पट्टिका लगी हुई थी, जिस पर उस महावीर के ऐतिहासिक शब्द लिखे हुए थे-
वन्दे मातरम्
‘देशभक्ति का यह व्रत हमने आँख मूँद कर नहीं लिया है। इतिहास की प्रखर ज्योति में हमने इस मार्ग की परख की है। दृढ़ प्रतिज्ञ होकर दिव्य अग्नि में जलने का निश्चय जान-बूझकर किया है। हमने व्रत लिया है- आत्म बलिदान का
वीर सावरकर
केन्द्रीय मंत्री जी ने स्वतंत्रता के दिन देशवासियों को यह तोहफा दिया कि उस पट्टिका को हटाकर गांधी जी के नाम की पट्टिका लगवा दी, जबकि गांधी जी का सेलुलर जेल से कोई वास्ता नहीं था, उन्होंने कभी उस जेल के दर्शन भी नहीं किये थे और मंत्री जी भी वहां पिकनिक मनाने गये थे, उन्हें वीर सावरकर की कुर्बानी का अहसास तो तब होता, यदि वीर सावरकर की तरह बंदी बनाकर ले जाये जाते और उस नरक में दस-पांच वर्ष बिताते। एयर कंडीशनर कमरों में बैठकर विलासी जीवन जीने वाले लोग देशभक्तों की पीड़ा को क्या समझें ? कविवर हरिओम पंवार के शब्दों में कहूँ तो-
आजादी लाने वालों का तिरस्कार तड़पाता है।
बलिदानी पत्थर पर थूका बार-बार तड़पाता है।
इंकलाब की बलिवेदी भी जिससे गौरव पाती है।
आजादी में उस शेखर को भी गाली दी जाती है।
जिन बेटों ने धरती माता पर कुर्बानी दे डाली।
आजादी के हवन कुण्ड के लिये जवानी दे डाली।
वे देवों की लोकसभा के अंग बने बैठे होंगे।
वे सतरंगी इन्द्रधनुष के रंग बने बैठे होंगे।
उन बेटों की याद भुलाने की नादानी करते हो,
इन्द्रधनुष के रंग चुराने की नादानी करते हो।
राजेशार्य 'रत्नेश'

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जवाब देंहटाएंवाह महाराज खुद ही शाबासी दी जा रही है, आपकी शुरुआत अच्छी है, अब ऐसे ही लगे रहिए।
जवाब देंहटाएंबहुत ही उत्तम विचारों का संकलन किया है आपने ऐसे ही लगे रहें
जवाब देंहटाएंyou are one of the greatest sons of rishi Dayanand. A dedicated researcher can only values your feelings and words.
जवाब देंहटाएंparmatma aapko swasthya va shatayu pradan karan..
isi prakar jalte or jalate rahiye
wah dost kya lachche dar bate likhi hai lekin adhi se jyada vastvikta se pare hain . sawarkar ke bare me aapka dard vajib ho sakta hai lekin us desh bhakt ke bare me adure gyan ke sath. uska mafinama bhi lekhna chahiye jise usne angreji sarkar ko likh kar apni rihayi ki guhar lagayi thi
जवाब देंहटाएंbeta rihaai naa dete to Azand hind fauz na ban paati
हटाएंaur tum jaisa kisi gore ki tatti sir par dho raha hota
बहुत बढ़िया लेखन हैं आपका |
जवाब देंहटाएंआपके शोध पर किए हुए श्रम के लिए आपको बहुत बहुत धन्यवाद