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बुधवार, 28 दिसंबर 2011

भारत को भारत रहने दो


भारत को भारत रहने दो

ठहरो इण्डिया कहने वालों, भारत को भारत रहने दो,
यदि भला चाहते हो अपना, गंगा को सीधा बहने दो।

आर्यों की भूमि आर्यावर्त, भरत से भारत कहलाया,
हिन्दुस्तान बना हिन्दू से, इंडिया है फिरंगी की माया।

आर्यावर्त को पारसमणि, ऋषि दयानन्द ने बतलाया था,
विश्व गुरु बनाने के लिए, विष कई बार पचाया था।

‘मैं भारत हूँ’ कहने वाला, रामतीर्थ सन्यासी था,
विवेकानन्द के लिए इसका, कण-कण मथुरा काशी था।

भारत के लिए मंगल पाण्डे, शोणित की भाषा बोला था,
नाना की बेटी मैनावती का, भी तो बासन्ती चोला था।

इसी माता के लिए हजारों, हँसकर चढ़ गये फाँसी पर,
कितने वीर कुर्बानी दे गये, मेरठ, ग्वालियर, झाँसी पर।

तांत्या, कुँवर, नाना, बहादुर,तुलाराम, झाँसी की रानी,
अपने सिरों की भेट दे गये, नाहर से अद्भुत वे दानी।

रामसिंह कूका, बिरसा मुण्डा, कितने ही बलवन्त फड़के थे,
जिनकी सिंह-गर्जना सुन, दिल अंग्रेजों के धड़के थे।

‘भारत भवन’ बना श्याम ने, क्रांति देवी का किया आह्वान,
योगी अरविन्द मैडम कामा से, आये साधक वीर महान।

मँा का चीर हरण होता देख, चापेकर बन्धु बढ़े आगे,
मिस्टर रैण्ड को मार गिराया, सोये वीर भारत के जागे।

माँ के लिए ही बहा चुके थे, तिलक जी आँखों का पानी,
एक बून्द भी न शेष मिला, स्वर्ग सिधारी जब उनकी रानी।

‘भारत माता’ दल के नेता, थे अजीतसिंह सूफी अम्बाप्रसाद,
‘अभिनव भारत’ सावरकर का, माता का हरता विषाद।

सतावन के समर के लिए, सावरकर ने उगली ज्वाला थी,
इसीलिए तो माता के गल, सजी मुण्डों की माला थी।

दुश्मन के घर जा धींगड़ा ने, दागी भारत की गोली थी,
हँसत-हँसते फाँसी चढ़, जय भारत माँ की बोली थी।

कैसे कोई भुला पाएगा, परमानन्द की दर्द कहानी,
माता की धुन में मस्त हुए, जा पहुँचे वीर काला पानी।

इसी धुन में अजीतसिंह, बरसों रहे वनवासी थे,
रासबिहारी, हरदयाल, पाल, भी क्या कम संन्यासी थे।

शचीन्द्रनाथ ने इस चमन के, थे पेड़ रक्त से सींचे,
प्रत्येक वीर शपथ लेता थ, जा चित्तौड़ दुर्ग के नीचे।

अवध बिहारी, करतार सराभा, कन्हाई दत्त औ काशीराम,
गैंदालाल, गणेशशंकर, प्रफुल्ल चाकी से पुष्प् ललाम।

विष्णु पिंगले, अमीरचन्द, फाँसी चढ़े बसन्त विश्वास,
हार्डिंग पर बम दे मारा, करने ब्रिटिश का समूल विनाश।

सतावन का दाग धो दिया, बब्बर खालसा वीरों ने,
शोणित से किया तर्पण माँ का, सोहन से रणधीरों ने।

भारत के लिए लहू बहा था, श्रद्धानन्द सन्यासी का,
लेखराम और राजपाल ने, किया सिंचन धरती प्यासी का।

भारत में शतबार जन्म के, इच्छुक बिस्मिल लहरी थे,
खुदीराम अशफाक व रोशन, इसके सजग प्रहरी थे।

सइमन कमिशन भारत छोड़ो, यूं पंजाब केसरी दहाड़ा था,
राजगुरु, सुखदेव, भगत ने, ब्रिटिश का तख्त उखाड़ा था।

वीर आजाद ने रक्त बहाया, भारत माँ के पसीने पर,
शत्रु के सौ-सौ वार सहे, अपने फौलादी सीने पर।

भगवती चरण दुर्गाभाभी, बाल मुकुन्द से बलिदानी,
जिनके सुख माँ को अर्पित थे, और हुई अर्पित जवानी।

माँ की आहों को सुनकर, उधम का लावा फूटा था,
ओडायर को मार गिराया, गोरों का सपना टूटा था।

गोरे-तिमिर के महानाश को, सूर्यसेन चमका सूरज सा,
इन माँ के बेटों का दर्शन, होता है मन्दिर की मूरत सा।

खून के बदले मिले आजादी, कह नेता जी हुँकारे थे,
‘जय हिन्द’ का लगा नारा, लड़े माँ के राजदुलारे थे।

मँा की भक्ति में रंगे हुए, वे पागल थे दीवाने थे,
गोरे शत्रु से टकराने को, हरदम सीना ताने थे।

भारत मां के लिए ही गूंजा, ‘वन्दे मातरम्’ नारा था,
‘अंग्रजों भारत छोड़ो’ यह, बच्चा-बच्चा ललकारा था।

अगणित हीरे सजे हुए हैं, माता की सुन्दर माला में,
उन भूलों को नमन करूँ मैं, जो मिट गये वधशाला में।

देश पर मरने वाला वीर, जय भारत मां की बोला था,
हृदय में ज्वाला धधकी थी, हर वीर बना बम गोला था।

आजादी मिलते ही हमने, वीरों की मां को भुला दिया,
लार्ड मैकाले के सपनों का, भारत को ‘इंडिया’ बना दिया।

इंडिया ले गया आजादी को, बंदी अभी तक भारत है,
बिगड़ चुकी है भाषा-भूषा, चरित्र हुआ यहाँ गारत है।

श्रम का तो सम्मान नहीं, माडलिंग पर इनाम मिले,
इतिहासकारों ने गुल खिलाये, देशभक्त गुमनाम मिले।

धूल भरा हीरा है भारत, इंडिया रहे आसमानों में,
भारत के तन पर फट चीथड़े, इंडिया विदेशी परिधानों में।

देह प्रदर्शन करती नारी, ऋषि संस्कृति का कर उपहास,
यौन शिक्षा की वकालत कर, शिक्षा का किया सत्यानश।

चील और कव्वे का भोजन, खाने लगे इंडिया के लोग,
धर्म मोक्ष सब छूट गये, सबको लगा पैसा का रोग।

भारत लड़ता आतंकवाद से, इंडिया करता समझौते,
यदि समय पर जग जाते, तो पाक के मालिक हम होते।

वह देश धरा से मिट जाता है, भूले जो अपने बलिदान,
निज संस्कृति भाषा-भूषा का, जिसको नहीं तनिक अभिमान।

इसीलिए कहता हूँ सुन लो- ओ इंडिया के मतवालों,
भारत को भारत रहने दो, घर में विषधर मत पालो।

युगों-युगों से चलती आई, धारा कभी न सूखेगी,
ऋषि संस्कृति के हत्यारों, पीढ़ी तुम पर थूकेगी।

फिरर से कोई रामदेव बाबा, भारत स्वाभिमान जगाएगा,
दीक्षा ले केाई राजीव दीक्षित, फैल विश्व में जाएगा।।

सोमवार, 26 दिसंबर 2011

वीर भगतसिंह का-----


वीर भगतसिंह का समाजवाद व राष्ट्र-प्रेम

प्रिय पाठकवृन्द ! वर्तमान में वैज्ञानिक सुख-सुविधाओं का उपभोग करता हुआ मानव उनके आविष्कारक वैज्ञानिकों का गुणगान करता हुआ यह भूल जाता है कि उनमें से बहुत से वैज्ञानिक नास्तिक थे अर्थात् संसार को प्रकाश व सुविधा देने के कारण ही उसका सम्मान किया जाता है, नास्तिक होने के कारण नहीं। अपने प्राणों की आहुति देकर हमें स्वतंत्र कराने वाले वीरों के विषय में भी यही बात है अर्थात् पं. रामप्रसाद बिस्मिल इसलिए आदरणीय नहीं है कि वे सच्चे आस्तिक थे और वीर भगतसिंह इसलिए आदरणीय नहीं है कि वे कट्टर नास्तिक थे। देश की जनता में आज भी उनके लिए जो प्यार और सम्मान है, उसका कारण उनका राष्ट्र-प्रेम व बलिदान है, पर कुछ दशकों से मार्क्सवादी विचारधारा के लोग इस बात से परेशान हैं कि भगतसिंह को वीर क्रान्तिकारी ही क्यों माना जात है, नास्तिक, लेनिनवादी व मार्क्सवादी क्यों नहीं। ये लोग इस बात को छिपाने का प्रयास करते हैं कि भगतसिंह की पृष्ठभूमि आर्यसमाजी व क्रांतिकारी थी। केवल लेनिन व मार्क्स के साहित्य से ही वे क्रांतिकारी नहीं बने थे। निर्वासित हुए चाचा अजीतसिंह के वियोग में बरसते चाची हरनाम कौर के आंसू नन्हें भगत को अंग्रजों से लड़ने के लिए प्रेरित कर रहे थे। पिता किशनसिंह की अंग्रजों से होने वाली टक्कर को वे प्रतिदिन देखते थे। जलयांवाला बाग के हत्याकांड से वे परिचित थे। शहीद करतार सिंह सराभा को वे अपना आदर्श मानते थे। कूका आंदोलन के प्रवर्तक गुरु रामसिंह, सूफी अम्बाप्रसाद, मदनलाल ढींगारा, बलवन्त सिंह जैसे बलिदानी वीर उनमें क्रांतिभाव जगाते थे और सबसे मुख्य बात तो यह है कि उन्हें इस बात का स्मरण रहता था कि उनके दादा सरदार अर्जुनसिंह न यज्ञोपवीत के समय घोषणा की थी कि उन्हें (भगतसिंह को) खिदमते वतन के लिए वक्फ कर दिया है।
भगतसिंह को मार्क्सवादी व नास्ति प्रचारित करते समय ये लोग अन्य किसी भी आस्ति देशभक्त की चर्चा नहीं करते और सम्मान नहीं देते, फिर वह चाहे नेता सुभाष चन्द्र हो या भगतसिंह का अन्तरंग साथी चन्द्रशेखर आजाद हो। जबकि भगतसिंह ने किसी भी बलिदानी वीर की इसलिए उपेक्षा नहीं कि की वह मार्क्सवादी नहीं था और आस्तिक था। काकोरी के शहीदों के विषय में भगतसिंह ने ‘किरती’ जनवरी 1928 में ‘विद्रोही’ के नाम से लिखा। वे चारों वीर (रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला, रोशनसिंह व राजिन्द्र लाहिड़ी) आस्तिक देशभक्त थे। भगतसिंह ने लिखा- ‘‘नीचे हम उन चारों के हालात संक्षेप में लिखते हैं, जिससे यह पता चले कि यह अमूल्य रत्न मौत के सामने खड़े होते भी किस बहादुरी से हँस रहे थे।.....
श्री राजिन्द्र लाहिड़ी...... आपका स्वभाव बड़ा हँसमुख और निर्भय था। आप मोत का मजाक उड़ाते रहते थे।
श्री रोशनसिंह जी...... (फाँसी के) तख्ते पर खडे़ होने के बाद आपके मुख से जो आवाज निकली वह यह थी - वन्देमातरम्।
श्री अशफाक उल्ला...... आप श्री रामप्रसाद का दायां हाथ थे, मुसलमान होने के बावजूद आपका कट्टर आर्यसमाजी धर्म से हद दर्जे का प्रेम था। दोनों प्रेमी एक बड़े काम के लिए अपने प्राण उत्सर्ग कर अमर हो गए।
श्री रामप्रसाद बिस्मिल...... फाँसी से दो दिन पहले सी.आई.डी. के मि. हैमिल्टन आप लोगों से मिन्नतें करते रहे कि आप मौखिक रूप से सब बता दो, आपको पांच हजार रुपया नकद दिया जाएगा और सरकारी खर्चे पर विलायत भेजकर बैरिस्टर की पढ़ाई करवाई जाएगी। लेकिन आप कब इन बातों की परवाह करते थे। आप हुकूमतों को ठुकराने वाले व कभी कभार जन्म लेने वाले वीरों में से थे।..’’
मदनलाल ढींगरा परम आस्तिक देशभक्त थे, उनकी शहादत को नमन करते हुए भगतसिंह ने लिखा- ‘‘धन्य था वह वीर ! धन्य है उनकी याद ! मुर्दा देश के अमूल्य हीरे को बारम्बार नमस्कार !’’ (किरती, मार्च 1928)
श्री बलवन्त सिंह के विषय में लिखा है- ‘‘वे बड़े ईश्वरभक्त थे।’’ (‘चांद’ फाँसी अंक नवम्बर 1928)
1924 में लिखे व 28 फरवरी 1933 के ‘हिन्दी सन्देश’ में प्रकाशित ‘पंजाबी की भाषा..’ लेख में भगतसिंह लिखते हैं- ‘‘दोनों (स्वामी विवेकानन्द और स्वामी रामतीर्थ) विदेशों में भारतीय तत्त्वज्ञान की धाक जमाकर स्वयं भी जबत् प्रसिद्ध हो गए,.... जहाँ स्वामी विवेकानन्द कर्मयोग का प्रचार कर रहे थे, वहाँ स्वामी रामतीर्थ भी मस्तानावार गाया करते थे-
हम रूखे टुकड़े खायेंगे, भारत पर वारे जाएंगे।
हम सूखे चने चबाएंगे, भारत की बात बनाएंगे।
हम नंगे उमर बिताएंगे, भारत पर जान मिटाएंगे।
इतना महान देश तथा ईश्वर-भक्त हमारे प्रान्त में पैदा हुआ हो, परन्तु उसका स्मारक तक न दीख पड़े, इसका कारण साहित्यिक फिसड्डीपन के अतिरिक्त क्या हो सकता है ?’’
15 नवम्बर व 22 नवम्बर 1924 के ‘मतवाला’ में बलवन्तसिंह के नाम से भगतसिंह ‘विश्व प्रेम’ में लिखते हैं-‘‘वसुधैव कुटुम्बकम् ! जिस कवि सम्राट की यह अमूल्य कल्पना है, जिस विश्व प्रेम के अनुभवी का यह हृदयोद्गार है, उसकी महत्ता का वर्णन करना मनुष्य शक्ति से सर्वथा बाहर है।....... जिस दिन तुम सच्चे प्रचारक बनोगे इस अद्वितीय सिद्धान्त के, उस दिन तुम्हें माँ के सच्चे सुपुत्र गुरु गोविन्द सिंह की तरह कर्मक्षेत्र में उतरना पड़ेगा।... राणा प्रताप की तरह आयुपर्यन्त ठाकरें खानी होंगी, तब कहीं उस परीक्षा में उत्तीर्ण  हो सकोगे।
विश्वप्रेमी वह वीर है जिसे भीषण विप्लववादी, कट्टर अराजकतावादी कहने में हम लोग तनिक भी लज्जा नहीं समझते- वही वीर सावरकर।........
विश्वप्रेम की देवी का उपासक था ‘गीता रहस्य’ का लेखक पूज्य लोकमान्य तिलक।......
अरे ! रावण और बाली को मार गिराने वाले रामचन्द्र ने अपने विश्व प्रेम का परिचय दिया था भीलनी के झूठे बेरों को खाकर। चचेरे भाईयों में घोर युद्ध करवा देने वाले, संसार से अन्याय को सर्वथा उठा देने वाले कृष्ण ने परिचय दिया अपने विश्व प्रेम का- सुदामा के कच्चे चावलों को फांक जाने में।
6 जून 1929 को दिल्ली के सेशन जज की अदालत में दिये अपने बयान में भगतसिंह ने कहा था- ‘‘इधर देश में जो नया आन्दोलन तेजी के साथ उठ रहा है, और जिसकी पूर्व सूचना हम दे चुके हैं वह गुरु गोविन्द सिंह, शिवाजी, कमालपाशा, रिजाखां, वाशिंगटन, गैरीबाल्डी, लाफापेट और लेनिन के आदर्शों से ही प्रस्फुरित है और उन्हीं के पदचिह्नों पर चल रहा है।’’........
नेजवान भारत सभा, लाहोर का घोषणापत्र 11 से 13 अप्रैल 1928 को तैयार किया गया, जिसमें लिखा था- ‘‘गुरु गोविन्द सिंह को आजीवन जिन  नारकीय परिस्थितियों का सामना करना पड़ा था, हो सकता है उससे भी अधिक नारकीय परिस्थितियों का सामना करना पड़े।’’......
असेम्बली हाल में बम फैंकने के बाद दिल्ली जेल से 26 अप्रैल 1929 को अपने पिता के नाम पत्र लिखकर भगतसिंह ने कुछ पुस्तकें मँगवाई, जिनमें तिलक जी की ‘गीता रहस्य’ भी थी। गुरु रामसिंह के विषय में तो यहां ताक लिखा है- ‘‘गुरु रामसिंह बड़े तेजस्वी तथा प्रभावशाली व्यक्ति थे। उनके असाधारण आत्मबल सम्बन्धी बहुत सी बातें प्रसिद्ध हैं। कहते हैं कि वे जिसके कान में दीक्षा मन्त्र फंूक देते थे वही उनका परम भक्त और शिष्य हो जाता था।.... ऐसी अनेक घटनाएं हैं। जो भी हो, इतना तो मानना ही पडे़गा कि गुरु जी ईश्वर भक्ति तथा उच्च चरित्र के कारण एक महान शक्तिशाली महापुरुष थ। अतः उपरोक्त घटनाएं असम्भव नहीं।
चिन्तनशील होने के कारण मानके के विचारों में परिवर्तन होता ही रहता है। यह परिवर्तन कभी किसी घटना विशेष के कारण हो सकता है, किसी व्यक्ति या साहित्य के संग भी हो सकती है। शिकारी लक्ष्मणदास हिरणी के गर्भस्थ शिशुओं को मरते देखकर शिकार त्यागकर वैरागी माधोदास बन जात है और फिर वही माधोदास गुरु गोविन्छ सिंह की प्रेरणा से बंदा बैरागी बन हिन्दुओं की रक्षार्थ शस्त्र धारण कर इतिहास रचता है। मूर्तिपूजक पिता का बेटा मूलशंकर शिवरात की घटना से मूर्तिपूजा विरोधी हो जाता है। विज्ञान का विद्यार्थी नास्तिक गुरुदत्त महर्षि दयानन्द की अन्तिम लीला दर्शन कर दृढ़ आस्तिक बन जाता है। दुर्व्यसनों में फंसा नास्तिक मुंशीराम महर्षि दयानन्द के संग व सत्यार्थप्रकाश के स्वाध्याय से दृढ़ आस्तिक बन वकालत को ठोकर मार गुरुकुल कांगड़ी का आचार्य बन जाता है। जीवनभर ळवक पे दवूीमतम कहकर नास्तिकता का प्रचार करने वाला इंग्लैण्ड का विचारक ब्रेडला मृत्युशय्या पर ळवक पे ीवू ीमतम कह उठता है। फिर यदि आस्तिकता का चोगा पहनकर दीन-गरीबों का शोषण करने वाले लोगों को देखकर व लेनिन, मार्क्स आदि नास्तिक क्रांतिकारियों का साहित्य पढ़कर भगतसिंह उनकी विचारधारा से प्रभावित हो गये हों, तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है। क्योंकि उन क्रांतिकारियों का मुख्य विषय देश की शोषित, पीड़ित जनता का उद्धार करना था, ईश्वर-उपासना नहीं। और भगतसिंह का भी यही उद्देश्य था। अतः धर्म के नाम पर होने वाले भेदभाव छुआछूत, सांप्रदायिक दंगे आदि का कारण ईश्वर और धर्म को मानकर इन्हें परे हटाने का मार्क्स आदि की तरह भगतसिंह का भी विचार बना। ‘किरती’ मई 1928 में ‘धर्म और हमारा स्वतंत्रता संग्राम’ शीर्षक में वे लिखते हैं-
‘‘रूसी महात्मा टालस्टॉय ने अपनी पुस्तक Essay and Letters में धर्म पर बहस करते हुए इसके तीन हिस्से किए हैं-
1. Essentials of Religion,  यानी धर्म की जरूरी बातें अर्थात् सच बोलना, चारी न करना, गरीबों की सहायता करना, प्यार से रहना, वगैरा।
2. Philosophy of Religion, यानी जन्म-मृत्यु, पुनर्जन्म, संसार रचना आदि का दर्शन।
3. Rituals of Religion, यानी रस्मों-रिवाज वगैरा।......
सो यदि धर्म पीछे लिखी तीसरी और दूसरी बात के साथ अन्धविश्वास को मिलाने का नाम है, तो धर्म की कोई जरूरत नहीं। इसे आज ही उड़ा देना चाहिये। यदि पहली और दूसरी बात में स्वतंत्र विचार मिलाकर धर्म बनता हो, तो धर्म मुबारक है।.......... हमारी आजादी का अर्थ केवल अंग्रजी चंगुल से छुटकारा पाने का नाम नहीं, वह पूर्ण स्वतंत्रता का नाम है - जब लोग परस्पर घुल-मिलकर रहेंगे और दिमागी गुलामी से भी आजाद हो जाएंगे।’’
ऐसा अनुमान है कि जिस गम्भीरता से भगतसिंह ने नास्तिकवाद को पढ़ा यदि उसी गम्भीरता से वैदिक आध्यात्मिक ग्रन्थों को भी पढ़ा होता या किसी वैदिक विद्वान् से शंका-समाधान किया होता, तो वे मार्क्सवाद की जगह वैदिक समाजवाद का प्रचार करते, क्योंकि नास्तिकवाद के पक्ष में उनके प्रश्न इतने मजबूत नहीं हैं। यद्यपि ‘मै नास्तिक क्यों हूं’ शीर्षक में भगतसिंह ने लिखा है- ‘‘मैंने अराजकतावादी नेता बाकुनिन को पढ़ा, कुछ साम्यवाद के पिता मार्क्स को, किन्तु ज्यादातर लेनिन, त्रात्स्की व अन्य लोगों को पढ़ा जो अपने देश में सफलतापूर्वक क्रांति लाए थे। वे सभी नास्तिक थे।...... 1926 के अन्त तक मुझे इस बात का विश्वास हो गया कि सर्वशक्तिमान परम आत्मा की बात-........ एक कोरी बकवारस है।’’ तथापि 1927 में अमरचन्द के नाम पत्र के अंत में वे लिखते हैं-
‘‘.......अभी तक कोई मुकदमा मेरे खिलाफ तैयार नहीं हो सका और ईश्वर ने चाहा तो हो भी नहीं सकेगा। आज एक बरस होने को आया, मगर जमानत वापस नहीं ली गई। जिस तरह ईश्वर को मंजूर होगा।.........’’
मई 1927 में भगतसिंह ने ‘विद्रोही’ नाम से ‘किरती’ (पंजाबी पत्रिका) में ‘काकोरी के वीरों से परिचय’ लेख में अश्फाकउल्ला, रोशनसिंह, राजेन्द्र लाहिड़ी, रामप्रसाद बिस्मिल, मन्मथनाथ गुप्त, जोगेशचन्द्र चटर्जी आदि का परिचय देकर अन्त में लिखा- ‘‘ईश्वर उन्हें बल व शक्ति दे कि व वीरता से अपने (भूख हड़ताल के) दिन पूरे करें और उन वीरों के बलिदान रंग लाएं।’’
फरवरी 1928 में ‘महारथी’ में बी.एस. सिन्धू नाम से भगतसिंह ने ‘कूका विद्रोह-।’ लेख के अंत में लिखा है- ‘‘उन अज्ञात लोगों के बलिदानों का क्या परिणाम हुआ, सो वही सर्वज्ञ भगवान जाने। परन्तु हम तो उनकी सफलता-विफलता का विचार छोड़ उनके निष्काम बलिदान की याद में एक बार नमस्कार करते हैं।’’
नवम्बर 1928 ‘चांद‘ (फांसी अंक) में देशभक्त वीर सूफी अम्बाप्रसाद के विषय में लिखकर भगतसिंह ने अंत में लिखा है- ‘‘आज सूफी जी इस देश में नहीं हैं। पर ऐसे देशभक्त का स्मरण ही स्फूर्तिदायक हाता है। भगवान उनकी आत्मा को चिर शांति दे।’’
जून 1928 ‘किरती’ में ‘सांप्रदायिक दंगे और उनका इलाज’ लेख में लिखा है- ‘‘बस किसी व्यक्ति का सिख या हिन्दू होना मुसलमानों द्वारा मारे जाने के लिए काफी था और इसी तरह किसी व्यक्ति का मुसलमान होना ही उसकी जान लेने के लिए पर्याप्त तर्क था। जब स्थिति ऐसी हो तो हिन्दुस्तान का ईश्वर ही मालिक है।’’
‘मैं नास्तिक क्यों हूं’ लेख में भगतसिंह ने यह भी स्वीकार किया है कि ‘विश्वास’ (ईश्वर पर) कष्टों को हल्का कर देता है, यहां तक कि उन्हें सुखकर बना सकता है। ईश्वर से मनुष्य को अत्यधिक सांत्वना देने वाला एक आधार मिल सकता है। ‘उसके’ बिना मनुष्य को स्वयं अपने ऊपर  निर्भर होना पड़ता है। तूफान और झंझावात के बीच अपने पांवों पर खड़ा रहना कोई बच्चों का खेल नहीं है।...’’(5-6 अक्तूबर 1930)
प्रिय पाठकवृन्द ! उपरोक्त सभी प्रमाण श्री चमनलाल द्वारा सम्पादित ‘भगतसिंह के संपूर्ण दस्तावेज’ से लिये हैं। सम्पादक का उद्देश्य भगतसिंह नास्तिक व समाजवाद का प्रचार करना है। यह ठीक है कि भगतसिंह नास्तिक व समाजवाद के समर्थक थे और किसान-मजदूरों की शोषण-मुक्ति की बात करते थे, लेकिन उनके इस विचार के पीछे की प्रेरक-शक्ति भारत राष्ट्र के किसी वर्ग को शोषित-दलित नहीं देख सकते थे। उनका वामपंथ अपने मिजाज, प्रेरणा, चरित्र और चिंतन में भारत से जोड़ने वाला था, आजकल के वामपंथी ढर्रे की तरह भारत के अतीत, संस्कृति व सभ्यता से घृणा करने वाला नहीं।
ये लोग भगतसिंह के लेख ‘मै नास्तिक क्यों हूं’ को आधार बनाकर उन्हें पूर्ण रूप से आंकने का प्रयास करते हैं। यह लेख 1979 में श्री विपिन चन्द्र प्रकाश में लाए। लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि भगतसिंह ने यह लेख तब लिखा था, जब फांसी का फंदा सामने था, जब चारों ओर अंग्रेजी सरकार का अत्याचार चल रहा था, गरीब, मजदूर और किसान अपमानित और शोषित हो रहे थे, आशा की किरण कम दिखाई दे रही थी। अगर भगवान के प्रति आस्था और प्यार स्वाभाविक है तो भगवान के प्रति नाराजगी भी उतनी ही स्वाभाविक है। गायादि पशुओं पर होने वाले अत्याचार को देखकर वेदों के परम विद्वान्, ईश्वर के सच्चे भक्त महर्षि दयानन्द का हृदय कांप उठा और ईश्वर को उलाहना देते हुए कहते हैं-‘‘हे परमेश्वर ! तू क्यों इन पशुओं पर, जो कि बिना अपराध मारे जाते हैं, दया नहीं करता ? क्या उन पर तेरी प्रीति नहीं है ? क्या उनके लिये तेरी न्यायसभा बन्ध हो गई है ? क्यों उनकी पीड़ा छुड़ाने पर ध्यान नहीं देता, और उनकी पुकार नहीं सुनता। क्यों इन मांसाहारियों के आत्माओं में दया प्रकाश कर निष्ठुरता, कठोरत, स्वार्थपन और मूर्खता आदि दोषों को दूर नहीं करता ? जिससे ये इन बुरे कामों से बचें।’’ (गोकरुणानिधिः)
भगतसिंह की नास्तिकता का प्रचार करने वालों को इस तरफ भी ध्यान देना चाहिए। प्रसिद्ध लेखक श्री कुलदीप नैयर ने ‘शहीद भगतसिंह के क्रांति-अनुभव’ में लिखा है- ‘‘भगतसिंह के पिता ने उसे बताया कि महात्मा गांधी ने अंग्रेज सरकार को यह कह दिया है कि अगर इन तीनों नवयुवकों को फांसी पर लटाकाना है तो उन्हें कराची में हो रहे कांग्रेस सम्मेलन से पहले लटका देना चाहिए। भगतसिंह ने पूछा कि कांग्रेस का कराची सम्मेलन कब हो रहा है ? उसके पिता ने कहा कि मार्च महीने के अंत में। भगतसिंह ने इसके उत्तर में कहा कि यह तो बहुत प्रसन्नतादायक बात है क्योंकि गर्मियां आ रही हैं, इसलिए काल-कोठरी में सड़कर मरने से फांसी पर चढ़ जाना अपेक्षाकृत अच्छी बात है। लोग कहते हैं कि मौत के बाद बहुत अच्छी जिंदगीय मिलती है परन्तु मैं पुनः भारत में ही जन्म लूंगा, क्योंकि मैंने अभी अंग्रेजों का और सामना करना है। मेरा देश जरूर आजाद होगा।’’
श्री सुभाष रस्तोगी ने ‘क्रांतिकारी भगतसिंह’ में लिखा है- एडवोकेट प्राणनाथ ने अपने ऐ संस्मरण में इस प्रकार (उल्लेख) किया है: फिर मैंने (भगतसिंह से) पूछा- ‘आपकी अंतिम इच्छा क्या है ?’ उनका उत्तर था ‘बस यही कि फिर जन्म लूं और मातृभूमि की और अधिक सेवा करूं।’
पाठकवृन्द ! क्या पुनर्जन्म मानने वाला नास्तिक होता है ? क्या अन्याय, अत्याचार से पीड़ित जन के आंसू पोंछकर उन्हें प्रसन्नता देने वाला नास्तिक होता है ? क्या समूचे राष्ट्र का हित करने वाला नास्तिक होता है ? क्या परोपकार के लिए प्राणों की आहुति देने वाला नास्तिक होता है ?

गुरुवार, 22 दिसंबर 2011

हा! बलिदान का यह पुरस्कार


हा! बलिदान का यह पुरस्कार



प्रिय पाठकवृन्द ! जून महीने की समाप्ति पर समाचार पत्रों में एक आश्चर्यजनक समाचार छपा आरटीआई कार्यकर्ता मनोरंजन राय ने केन्द्रीय गृहमन्त्रालय से पूछा कि हमारे देश का क्या नाम है- इण्डिया, भारत या हिन्दुस्तान ? और हमारे देश की राष्ट्रीय भाषा क्या है? अधिकारी देश के नाम को स्पष्ट नहीं कर पाये और भाषा के विषय में कहा कि हमारे देश के संविधान में राष्ट्रीय भाषा के तौर पर किसी भाषा का उल्लेख नहीं है।
इससे कई वर्ष पूर्व भी ऐसा ही उत्तर मिला था जिसमें कहा गया था कि नेता जी सुभाष चन्द्र बोस का स्वतंत्रता प्राप्ति में क्या योगदान था, इसका कोई रिकॉर्ड भारत सरकार के पास नहीं है अर्थात् हम केवल 50-60 वर्षों में ही इतने स्वच्छन्द कृतघ्न और संवेदनहीन हो गये कि अपने पूर्वजों के बलिदान, राष्ट्र व राष्ट्रभाषा का नाम तक भूल गये। हमारी अवस्था कटी डोर वाली पतंग जैसी हो गई है, जिसके पतन की कोई सीमा निश्चित नहीं होती।
कुछ मास पूर्व क्रिकेट में भारत की शानदार विजय दिलाने वाले खिलाड़ी सचिन तेंदुलकर को समाचारपत्रों ने ब्राण्ड इण्डिया खिलाड़ी कहा और टेलीविजन वालों ने इसे ‘भारत का एकमात्र गौरव’ कहा। वास्तविकता तो यह है कि क्रिकेट खेल नहीं, व्यापार है। बहुराष्ट्रीय कम्पनियां स्पान्सर नहीं करें तो क्रिकेट का खेल नहीं हो सकता और यह भी सत्य है कि सचिन ने खेल पैसे के लिए ही खेला है, जिससे देश की गरीब जनता को कोई लाभ नहीं हुआ। फिर भी कुछ भोले लोग सचिन को ‘भारत रत्न’ देने की जोरदार सिफारिश कर रहे हैं।
क्या ऐसे लोगों ने कभी उनके लिये भी ‘भारत रत्न’ का सम्मान दिलाने की सोची-जिस सैनिक ने पहाड़ की बर्फीली चोटी पर रात को जागते हुए (ताकि हम आराम से सो सकें) अपने प्राणों की आहुति दे दी, जिस दशरथ मांझी ने 8 वर्षों की अपनी कड़ी मेहनत से पहाड़ काटकर 80 मील के रास्ते को 13 मील में बदल दिया, जिस गरीब मैकेनिक निरंजन सामल (ओड़िशा) ने पेड़ लगाने को जीवन का लक्ष्य बनाकर एक पूरा जंगल बना डाला ? क्या इन्होंने कभी मंगल पाण्डे, भगतसिंह, चन्द्रशेखर आजाद जैसे बलिदानियों को ‘भारत रत्न’ देने की सिफारिश की ? शायद ये वीर इनकी नजरों में आतंकवादी हैं, स्वामी दयानन्द साम्प्रदायिक हैं, वीर सावरकर कायर हैं।
यदि वास्तव में सचिन को ‘भारत रत्न’ दिया जाता है तो यह कैसा विचित्र लगेगा कि भारत का ‘भारत रत्न’ विदेशी (अमेरिका) कम्पनियों के कोक, पेप्सी बेचता हुआ नजर आएगा। मोबाइल फोन और इंजन ऑयल के सेल्समैन के रूप में हर मिनट टी.वी. पर दिखलाई पडे़गा। अक्षय जैन ने तो यहां तक कह दिया कि सचिन तेंदुलकर को ब्रांड यूएसए इन इण्डिया के खिताब से नवाजा जाए। क्रिकेट खिलाड़ियों को राष्ट्र का नायक या महानायक घोषित करना देश का अपमान है। सचिन के खाते में दो ही उपलब्धियां हैं। एक तो उसने क्रिकेट खेला और दूसरा उसने विदेशी कंपनियों के सामानों को बेचने का काम किया। 
पाठकों को यह याद होगा कि ‘भारत रत्न’ का सर्वोच्च सम्मान भारत सरकार द्वारा 1954 ईस्वी में शुरू किया गया और अगले ही वर्ष (1955) पं. नेहरु इस सम्मान से सम्मानित हो गये, जबकि सादगी की मूर्ति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद को यह सौभाग्य 1962 में प्राप्त हुआ। श्री लाल बहादुर शास्त्री को 1966 में मरणोपरान्त यह सम्मान मिला, जबकि श्रीमती इन्दिरा गांधी ने इस सम्मान को 1971 में ही प्राप्त कर लिया। डॉ. अम्बेडकर जैसे राजनीतिज्ञ अपनी मृत्यु के 34 वर्ष बाद (1990) इस सम्मान के योग्य समझे गये। जब पं. नेहरू की तीसरी पीढ़ी (श्री राजीव गांधी) भी मरणोपरान्त (1991) ‘भारत रत्न’ बन गई, तो आधुनिक भारत के चाणक्य सरदार पटेल अपनी मृत्यु के 41 वर्ष बाद इस सम्मान को पा सके।
जर्मनी और जापान के तानाशाह नायक जिसके सम्मान में झुकते थे; अंग्रेज जिसको मृत्यु (काल्पनिक) के बाद भी भयभीत होकर उसे युद्ध अपराधी घोषित कर रहे हैं; जापान, बर्मा, सिंगापुर के लोग जिसकी कुर्बानी की गाथा गाते हैं; जिसकी एक हुंकार पर भारत के लोगों ने अपने प्राणों की बाजी लगा दी। इतने पर भी वर्तमान भारत सरकार के पास जिसके योगदान का कोई रिकॉर्ड नहीं है, उस नेताजी सुभाषचन्द्रबोस को यह सम्मान 1992 ई. में दिया गया। सम्भवतः देश में सत्ता परिवर्तन के कारण ही ऐसा हुआ हो, अन्यथा सेवा की आड़ में गरीबों के धर्म का सौदा करने वाली मदर टेरेसा को भी यह सम्मान 1980 में दिया जा चुका था और मरुदुर गोपालन रामचन्द्रन जैसे फिल्मकार भी (1988) इसे प्राप्त कर चुके थे, पर भारत मां का लाडला बेटा वीर सुभाष उपेक्षित ही रहा था।
और इससे भी पीड़ादायक बात यह है कि 1857 के ‘गदर’ को ‘भारत का स्वातन्त्र्य समर सिद्ध करने वाले; अंग्रेजों की जेल (काला पानी व भारत) में लगभग 14 वर्ष व नजरबंदी में लगभग 13 वर्ष बिताने वाले वीर सावरकर आजादी के 19 वर्ष बाद तक भी जीवित रहे। उन्हें आज तक यह सम्मान नहीं मिल सका। वैसे ये लोग सब प्रकार के मान-सम्मान से ऊपर उठकर घर फूंक तमाशा देखने वाले थे। सरकार उन्हें यह सम्मान दे या न दे, पर देश की जनता के हृदय-आसन पर तो ये सदा विराजमान रहेंगे।जनता ने उन्हें उनके कर्म के अनुरूप वीर, स्वातन्त्र्य वीर कहकर अपनी श्रद्धा अर्पित की है, पर विदेशी विचारधारा का चश्मा लगाये लोगों ने उनके माफीनामे की आड़ लेकर उन्हें कायर शब्द से लांछित करने की धृष्टता की है। ‘भगतसिंह सच्चे देशभक्त थे, उनकी पृष्ठभूमि क्रान्तिकारी व आर्यसमाजी थी’-यह लिखते हुए तो इन्हें शरम आती है और भगतसिंह को नास्तिक, लेनिनवादी व मार्क्सवादी सिद्ध करने में ही अपना सारा बुद्धि कौशल दिखाते रहते हैं।
यह तो कहा जाता है कि सावरकर ने अंग्रेजों की जेल से छूटने के लिए क्षमा याचना की, तो क्या जेल से 50 साल की जेल भोगकर वे देश के लिए कुछ कर पाते ? क्या वे रिहा किये गये ? जिस माफीनामे की आड़ में सावरकर को ‘कायर’ सिद्ध किया जाता है, उसे अंग्रेजी सरकार सरासर धोखा मानती थी। ब्रिटिश होम सैक्रेटरी मेकफरसर की टिप्पणी पढ़िये -‘‘सावरकर को छोड़ना ब्रिटिश साम्राज्य के लिए खतरनाक साबित होगा। यह जेल से छूटने की उनकी चाल है। अगर वह एक बार जेल से छूट गया, तो ब्रिटिश सरकार को उखाड़ फैंकने के लिए देश-व्यापी भूमिगत आन्दोलन फिर से संगठित कर लेगा। इसका सामना कर पाना सरकार के लिए बेहद कठिन होगा। सावरकार ब्रिटिश सरकार के लिए सबसे बड़ा खतरा है।
जो लोग आज माफीनामे की आड़ में सावरकर के बलिदान को ओछा साबित करना चाहते हैं, उन्हें क्या यह याद दिलाया जाए कि लेनिन के परम मित्र एम.एन.रॉय को कानपुर षड्यंत्र केस में 12 वर्ष की कैद की सजा हुई। उनके माफीनामे पर सरकार बहादुर ने बड़ी दयालुता के साथ विचार किया और 4 साल 10 महीने 11 दिन सजा काटने के बाद उन्हें रिहाई मिल गई। आज रॉय सिर्फ सम्माननीय ही नहीं, प्रातः स्मरणीय भी हैं, क्योंकि वे महान लेनिन के प्रिय मित्र थे और भारतीय कम्युनिस्ट आन्दोलन के जनक। फिर सावरकर के विषय में यह पैमाना क्यों बदल दिया जाता है ?
(1926 ई. में नेहरु जी यूरोप में श्याम जी कृष्ण, मैडम कामा, राजा महेन्द्र प्रताप आदि से मिले, पर इनके विचार और कार्यशैली नेहरु जी को प्रभावित न कर सकी। केवल दो व्यक्तियों ने उन्हें प्रभावित किया श्री वी. चट्टापाध्याय और एम.एन. राय। ये दोनों कम्युनिस्ट थे। इनको देशभक्ति की बात पसन्द ही नहीं थी।)
नेहरु जी की जेल डायरी को अनोखी कीर्ति के रूप में पेश करने वालों को यह भी सोचना चाहिए कि अंग्रेजों ने सावरकर को अपनी कवितायें लिखने के लिये कलम और कागज तक नहीं दिया था। उन्होंने काल कोठरी पर कील आदि की सहायता से अपनी कवितायें लिखकर कण्ठस्थ की थी।
इन्हें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि जिस अंग्रेज हुकूमत ने सावरकर के बड़े भाई की पत्नी के मर जाने के बाद भी सावरकर और उनके भाई को (दोनों कालापानी में थे) घर जाने की अनुमति नहीं दी थी, उसी हुकूमत ने कमला नेहरु के बीमार पड़ने के बाद जवाहर लाल नेहरु को सजा पूरी होने से पहले सिर्फ छोड़ ही नहीं दिया था, बल्कि उनका इलाज करवाने के लिए विदेश जाने की अनुमति भी दी थी।
इन्हें यह भी याद होगा कि आजादी मिलने से पूर्व ही अंग्रजों के साथ कार और हैलिकॉप्टर में कौन घूमते थे; लेडी माउण्टबैटन के साथ किसके आन्तरिक सम्बन्ध थे (लेडी की बेटी पामेला एण्डरसन ने ‘इंडिया रिमेम्बर्ड’ में विस्तार से लिखा है); नेता सुभाष के विरुद्ध तलवार उठाने की घोषणा किसने की थी; अमरिकी राजदूत जॉन केनेथ गलबर्थ को किसने बड़ी शान से कहा था-‘भारत पर शासन करने वाला मैं अंतिम अंग्रेज हूँ। ऐतिहासिक मन्दिर सोमनाथ के पुनर्निमाण से कौन परेशान होकर राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद को वहाँ जाने से रोकता रहा; किसने गोरक्षा के विरुद्ध प्रधानमंत्री पद से त्यागपत्र देने की धमकी दे दी थी; किसने सरदार पटेल को यह कहकर कश्मीर-समस्या को भारत के शरीर का नासूर बना दिया-‘‘मैंने सारी अन्य रियासतों के मामले में आपके समक्ष टाँग नहीं अड़ाई, तो आप इस मामले में दखल न दें। भारत के हितों का ध्यान मुझे आपसे कम नहीं, शायद ज्यादा है।’’ क्या यहाँ देशभक्ति और वीरता का पैमाना दूसरा है ?
राजनीति में युद्ध और सन्धि समयानुसार होते ही रहते हैं। महात्मा गांधी ने भी अंग्रेजों के साथ कई बार समझौते किये और अपने साथी कैदियों को छुड़ावाया। अंग्रेजों को कमजोर होता देखते ही सत्याग्रह बन्द भी कर दिये। गांधी-इरविन समझौता इतिहास प्रसिद्ध है। 23 दिसम्बर 1929 के दिन जब क्रांतिकारियों ने वायसराय इरविन की स्पेशल ट्रेन को दिल्ली के पास उड़ाने की चेष्टा की, तो गांधी जी ने ईश्वर की दया से वायसराय की जीवन रक्षा पर उन्हें बधाई सन्देश भेजा था।
जलियांवाला काण्ड के बाद (1919 ई.) अमृतसर कांग्रेस अधिवेशन में जब एक तरफ लोकमान्य तिलक ने ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध निन्दा का प्रस्ताव रखा, तो गांधी जी ने न केवल उस प्रस्ताव का विरोध किया, वरन् यहाँ तक धमकी दी कि अगर इस अधिवेशन में अंग्रेज सरकार को धन्यवाद देने का प्रस्ताव पारित न किया गया तो मैं अधिवेशन छोड़कर चला जाऊँगा।
क्या वीर सावरकर का कृत्य इतना ही घृणित था ? गांधी जी के राजनैतिक मंच पर आने से पहले ही 13 वर्षीय बालक विनायक दामोदर सावरकर चापेकर बंधुओं के बलिदान पर स्वतंत्रता के लिए लड़ने की प्रतिज्ञा (1897 ई.) करता है; 1905 ई. में विदेशी वस्त्रों की होली जलाता है; लगभग 23 वर्षीय वीर लन्दन में बैठकर ‘1857 के गदर’ को ‘स्वातन्त्र्य समर’ सिद्धकर 1907 ई. में 1857 की पचासवीं वर्षगांठ मनाता है; मदन लाल धींगड़ा को प्रेरणा देकर भारत के अपमान का बदला लेता है और बंदी होते हुए भी जहाज से समुद्र में कूदकर विश्व-प्रसिद्ध ख्याति पाता है। 50 वर्ष की कारावास की सजा पाकर अण्डमान (काला पानी) पहँुच जाता है (4 जुलाई 1911 ई.)
अद्भुत प्रतिभा के धनी इस वीर की पुस्तक प्रकाशन से पूर्व ही प्रतिबन्धित (1909 ई.) होने का गौरव प्राप्त हुआ, फिर भी इसके प्रथम खुले प्रकाशन (1947 ई.) तक कितने ही गुप्त संस्करण अनेक भाषाओं में छपकर देश-विदेश में वितरित होते रहे। स्वतंत्रता के दीवानों के लिए ‘गीता’ बन गई। वीर भगतसिंह ने चुपके-चुपके इसका अंग्रजी अनुवाद छपवाया। आजाद हिन्द फौज के सिपाहियांे को भी यह पुस्तक पढ़ने के लिए दी जाती थी। नेताजी के सहयोग से इसका तमिल संस्करण भी छपा था। यदि वीर सावरकर ने केवल यह इतिहास (1857 का स्वातन्त्र्य समर) ही लिखा होता, तो उनकी कीर्ति के लिये वही पर्याप्त था, पर यहाँ तो तीनों भाई देशहित जेल की तीर्थयात्रा कर रहे थे।
29 जून 1940 को नेता जी सुभाष वीर सावरकर से मिलने सावरकर सदन (मुम्बई) में आये। यह भेंट गुप्त रूप से हुई थी। उसी के परिणामस्वरूप नेताजी 16 जनवरी 1941 को देश छोड़कर निकल पड़े। 25 जून 1944 को ी इंडिया रेडियो सिंगापुर से दिये अपने आखिरी भाषण में सावरकर जी की प्रशंसा करते हुए नेताजी ने कहा-
‘‘जब दूरदृष्टि के अभाव में कांग्रेस के अधिकतर नेता भारतीय सैनिकों को भाड़े के टट्टू कहकर उनकी बुराई कर रहे थे, यह देखकर प्रसन्नता और संताष होता है कि केवल वीर सावरकर की निर्भीकतापूर्वक भारतीय युवकों को सेना में भर्ती होने के लिए कह रहे हैं। आज वही युवक हमारी इंडियन नेशनल आर्मी (आई. एन. ए.) को प्रशिक्षित सैनिकों के रूप में मिल रहे हैं’’
जब वीर सावरकर कोहमरी में पधारे तो आर्य समाज के महान योगी स्वामी आत्मानन्द जी ने विचारा-‘‘वीर सावरकर ने अपने राष्ट्र के लिये वह कर्तव्य निभाया है, जिसका स्मरण करते ही मानव नतमस्तक हो जाता है।’’ यह विचारकर वे अपने विद्यार्थियों सहित वीर सावरकर के सम्मान के लिये खड़े हो गये। उनके आने पर स्वामी जी ने वीर शिरोमणि को पुष्पमाला पहनाकर अपनी श्रद्धा अर्पित की और चरण स्पर्श किये।
प्रिय पाठकवृन्द! स्मान उद्देश्य (आजादी) होते हुए भी साधन की भिन्नता होने से ही वीर सावरकर से देश के सरकारी मान्यता प्राप्त महान नेता घृणा ही करते रहे। (वैसे प्रत्येक क्रांतिकारी वीर इनकी घृणा का पात्र रहा है) काला पानी में 10 वर्ष की भयंकर यातना झेलकर रत्नागिरि जेल में स्थानान्तरित हुए वीर सावरकर की रिहाई के लिए प्रयासरत लोग जब गांधी जी के पास हस्ताक्षर करवाने पहुँचे, तो वे बोले- ‘मैं नहीं जानता वह कौन सा सावरकर है। फिर पूछा- क्या यह वही सावरकर है, जिसने ‘दि इण्डियन वार ऑफ इंडिपैंडेस 1857’ लिखी है ? ........ सावरकर की मुक्ति देश के हित में नहीं है।
1937 में सावरकर की रत्नागिरि जिले की स्थान-बद्धता से मुक्ति का भाई परमानन्द, नेताजी सुभाष, डॉ. मुंजे, एन. सी. केलकर, अणे जैसे महान नेताओं ने स्वागत किया, पर गांधी व गांधीवादी मौन रहे। इतना ही नहीं, उन्होंने सावरकर के स्वागत समारोहों का बहिष्कार किया, उन्हें काले झण्डे दिखाये गये।
मार्च 1945 में वीर सावरकर के बड़े भाई गणेश सावरकर की मृत्यु पर देश-विदेश से सहानुभूति भरे पत्र व तार आये, पर हैदराबाद के निजाम उस्मान अली की माँ की मृत्यु पर सान्त्वना तार भेजने वाले गांधी जी की सहानुभूति की स्याही सावरकर के प्रति सूख गई थी। (इसी निजाम के विरुद्ध सत्याग्रह में आर्यसमाज के 27 वीर शहीद हुए थे और 1947 में सरदार पटेल को पुलिस एक्शन करना पड़ा था)
30 जनवरी 1948 को गांधी जी को गोली लगी, तो सावरकर सदन पर हमला कर गुण्डों ने वीर सावरकर के छोटे भाई नारायण सावरकर को घायल कर दिया। जिसके कारण अस्वस्थ रहकर 19 अक्तूबर 1949 को वे स्वर्गवासी हो गये। इधर 67 वर्षीय वीर सावरकर को हत्या षड्यंत्र का आरोप लगाकर रोग की अवस्था में ही बन्दी बना लिया। इस पर वीर सावरकर ने कहा- मेरे गांधी जी के साथ वैचारिक मतभेद अवश्व थे परन्तु पतन की यह सीमा नहीं हो सकती कि मैं किसी की हत्या कर दूँ। सावरकर को लाल किले में कैद कर लिया गया। 10 फरवरी 1949 को हत्याकाण्ड के विशेष न्यायाधीश जस्टिस आत्माचरण ने निर्णय दिया- ’’सावरकर ने देश के लिए बहुत कुछ भुगता। इस बात की जांच होनी चाहिए कि ऐसे महान नेता का नाम इस हत्याकाण्ड में क्यों घसीटा गया ?’’ सरकार को तो पहले ही अहसास था, अतः उनके बाइज्जत बरी हो जाने के बाद भी सरकार ने इस फैसले को उच्च न्यायालय में कोई चुनौती नहीं दी। और सावरकर ने भी देशहित को देखते हुए सरकार पर मानहानि का दावा नहीं किया।
रिहाई के दिन हिन्दू महासभा की ओर से लाल किले से वीर सावरकर की शोभा यात्रा निकालने का प्रबन्ध किया जाने लगा, तो केन्द्र सरकार के सर्वेसर्वा की इच्छानुसार दिल्ली के मजिस्ट्रेट ने सावरकर के लाल किले से बाहर जाने पर प्रतिबन्ध लगा दिया। साथ ही तीन मास तक उनके दिल्ली प्रवेश तथा निवास पर प्रतिबन्ध लगाकर पुलिस की गाड़ी से रेलगाड़ी में बैठाकर मुम्बई भेज दिया।
वीर सावरकर ने हिंसक मुस्लिम मनोवृत्ति की निन्दा की, तो पाकिस्तान के प्रधानमंत्री लियाकत अली नाराज हो गये। अप्रैल 1950 में लियाकत अली को नेहरू जी ने दिल्ली आमंत्रित किया, तो उसे प्रसन्न करने के लिए 4 अप्रैल 1950 को वीर सावरकर सहित हिन्दू महासभा के अनेक नेताओं को बन्दी बना लिया। 13 जुलाई 1950 को उन्हें इस शर्त पर रिहा किया गया कि वे एक वर्ष तक राजनीति में भाग नहीं लेंगे और अपने घर पर ही रहेंगे। 1962 में नेहरू जी के प्रिय भाई चीन ने भारत पर आक्रमण किया, तो प्रधानमंत्री ने तुरन्त ‘सावरकर सदन’ का पहरा कड़ा कर दिया। दो की जगह चार गुप्तचर लगा दिये। सावरकर जी के सारे पत्र जांचे जाने लगे। मानो हमला चीन न नहीं सावरकर सदन ने किया हो।
ऐसे में ‘भारत रत्न’ तो क्या नेहरू जी के जीते जी वीर सावरकर को स्वतंत्रता सेनानी भी नहीं माना गया। श्री लाल बहादुर शास्त्री जी ने अक्तूबर 1964 से सावरकर जी को तीन सौ रु. मासिक का मानधन देकर राष्ट्र के कृतघ्नता के कलंक को धोने का प्रयास किया। 26 फरवरी 1966 को देश के लिये अपने व बेगानों से अपमान के घूंट पीकर माँ का लाड़ला बेटा सदा के लिए सो गया। पर सरकार से विनती करने पर भी शव को श्मशान तक ले जाने के सैनिक गाड़ी नहीं मिली और चन्दन बाड़ी की श्मशान भूमि में उस दिवंगत वीर को श्रद्धांजलि अर्पित करने के लिए प्रान्तीय सरकार का एक भी मंत्री उपस्थित नहीं था। इसे कृतघ्नता की पराकाष्ठा ही कहना चाहिए।
स्ंसार से चले जाने के बाद भी उस महावीरके इतिहास को विस्मृति के गड्ढे में दबाने का प्रयास जारी रहा। राष्ट्रपति के आर नारायणन के काल में राष्ट्रभक्ति की भावना से सत्ता पक्ष ने वीर सावरकर को ‘भारत रत्न’ से नवाजने का प्रस्ताव भेजा था, मगर राष्ट्रपति इसे दबाकर बैठ गये। जब सादगी व शालीनता की मूर्ति, महान व्यक्तित्व के धनी, भारत के महान वैज्ञानिक डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम देश के राष्ट्रपति (2002) बने, तो सत्ता पक्ष ने संसद के केन्द्रीय कक्ष में वीर सावरकर का तैलचित्र लगाने का विचार किया और राष्ट्रपति द्वारा उसके अनावरण करने की घोषणा हुई तो सावरकर विरोधी समस्त विपक्ष दल में सनसनी फैल गई। सबने वीर सावरकर के विरोध में लिखा। सावरकर को कायर सिद्ध करने के लिये नये-नये शोधकर्ता लेखक तैयार हो गये। कुछ कुख्यात वामपंथी इतिहासकारों ने सावरकर द्वारा अंग्रेजों से माफी मांगने के विषय में नयी खोज ? तब (2003) से सात वर्ष पूर्व की थी, पर उस तथाकथित याचिका की प्रमाणिकता संदिग्ध है।
राष्ट्रपति जी को भी पत्र लिखकर कार्यक्रम में भाग न लेने का अनुरोध किया गया। (ऐसे लोग अब देश के सर्वेसर्वा हैं) पर राष्ट्रपति जी ने सूझबूझ से काम लिया। वे समारोह में शामिल ही नहीं हुए, अपितु उन्होंने वीर सावरकर के तैलचित्र का अनावरण भी किया, पर विरोधी इसे सहन नहीं कर पाये। पुनः सत्ता में आते ही वही घिनौना खेल शुरू हो गया। वर्षों से नोटो पर गांधी जी के फोटो छपते रहे, तो किसी को कोई आपत्ति नहीं, पर सावरकर का तो कहीं नाम भी नहीं रहना चाहिये, इसीलिए पोर्टब्लेयर में वीर सावरकर हवाई अड्डे का नाम भी बदल दिया।
15 अगस्त 2004 को पर्यटन पर निकले केन्द्रीय पैट्रोलियम मंत्री मणिशंकर अय्यर अंडमान की राजधानी पोर्टब्लेयर की ऐतिहासिक जेल सेलुलर में पहुंचे, जो दो जन्मों का आजीवन कारावास की सजा पाये वीर सावरकर की पर्याय बन चुकी है। वहां वीर सावरकर के नाम की पट्टिका लगी हुई थी, जिस पर उस महावीर के ऐतिहासिक शब्द लिखे हुए थे-
वन्दे मातरम्
‘देशभक्ति का यह व्रत हमने आँख मूँद कर नहीं लिया है। इतिहास की प्रखर ज्योति में हमने इस मार्ग की परख की है। दृढ़ प्रतिज्ञ होकर दिव्य अग्नि में जलने का निश्चय जान-बूझकर किया है। हमने व्रत लिया है- आत्म बलिदान का
वीर सावरकर
केन्द्रीय मंत्री जी ने स्वतंत्रता के दिन देशवासियों को यह तोहफा दिया कि उस पट्टिका को हटाकर गांधी जी के नाम की पट्टिका लगवा दी, जबकि गांधी जी का सेलुलर जेल से कोई वास्ता नहीं था, उन्होंने कभी उस जेल के दर्शन भी नहीं किये थे और मंत्री जी भी वहां पिकनिक मनाने गये थे, उन्हें वीर सावरकर की कुर्बानी का अहसास तो तब होता, यदि वीर सावरकर की तरह बंदी बनाकर ले जाये जाते और उस नरक में दस-पांच वर्ष बिताते। एयर कंडीशनर कमरों में बैठकर विलासी जीवन जीने वाले लोग देशभक्तों की पीड़ा को क्या समझें ? कविवर हरिओम पंवार के शब्दों में कहूँ तो-
आजादी लाने वालों का तिरस्कार तड़पाता है। 
बलिदानी पत्थर पर थूका बार-बार तड़पाता है।
इंकलाब की बलिवेदी भी जिससे गौरव पाती है।
आजादी में उस शेखर को भी गाली दी जाती है।
जिन बेटों ने धरती माता पर कुर्बानी दे डाली।
आजादी के हवन कुण्ड के लिये जवानी दे डाली।
वे देवों की लोकसभा के अंग बने बैठे होंगे।
वे सतरंगी इन्द्रधनुष के रंग बने बैठे होंगे।
उन बेटों की याद भुलाने की नादानी करते हो,
इन्द्रधनुष के रंग चुराने की नादानी करते हो।
राजेशार्य 'रत्नेश'